Thursday, September 26, 2013

कभी-कभी ग़लत ट्रेन भी सही जगह पहुंचा देती है..

लंच बॉक्स...

किसी भी फिल्म के चरित्रों के लिए इससे सटीक कलाकारों का चयन मैंने नहीं देखा। खासकर आण्टी के लिए भारती अचरेकर। रितेश जानते है कि भारती अचरेकर की आवाज़ ही काफ़ी है। उनकी आवाज़ में ही वो खनक है जो पड़ोसवाली आण्टी की आवाज़ में होती है। इला के रूप में निमरित कौर की खोज शानदार है। नवाज़उद्दीन और इरफान तो खैर है ही कमाल के।

मेरे लिए फिल्म आज़ाद होने की कहानी है। कैसे एक इंसान जाने-अनजाने रिश्तों का, नियमों का, आदतों का बंधक बन जाता है। और, कैसे एक गड़बड़ी आपको उस बंधन से मुक्त कर जाती है। फिल्म के संवाद सरल, सटीक और संवेदनशील है। मुबंई में रहमेवाले शायद इस फिल्म से खुद को और जोड़ पाए। लोकल ट्रेन का सफ़र, मुबंई के पुराने इलाक़ों में रहनेवाले लोगों का रहन-सहन और डिब्बेवालों का उनकी ज़िंदगी में दखल। इस सरल और मर्मस्पर्शी फिल्म को ज़रुर देखें।




पुनश्चः फिल्म को भूखे पेट मत देखिएगा। इला का बनाया खाना और साजन का उसके लिए आतुर होना आपकी भूख को इतना बढ़ा सकता है कि इंटरवल तक भी रुकना मुश्किल हो जाएगा। 

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