Friday, November 22, 2013

ज़िंदगी का क ख ग...

ज़िंदगी का क ख ग...
    हम सभी अपनी ग़लतियों से सीख लेते हैं। खासकर नौकरी के दौरान। हमारे परिवार, स्कूल या कॉलेज में अब तक हमें निजी तौर पर किसी भी घटना या परिस्थिति से निपटना नहीं सिखाया जाता हैं। हमारी शिक्षा की शुरुआत ही किताबी होती है। बच्चे को ए, बी, सी बोलना ही ध्यान से सिखाया जाता है। बाक़ी तो जब वो घर आए किसी मेहमान से बदतमीज़ी से बात करें तब उसे चांटे के साथ ये समझाया जाता है कि ऐसा नहीं करते हैं...

  ये बात मेरे मन में आज सुबह से घूम रही है कि क्यों हमारे घरों में, हमारे कॉलेजों में नौकरी के दौरान आनेवाली निजी दिक्कतों से निपटना नहीं सिखाया जाता हैं। किसी भी संस्थान में खासकर मीडिया संस्थान में जब किसी महिला के साथ बदसलूकी का मामला सामने आता हैं तो कई बार मेरे मन में ये सवाल आता है कि क्या वो ये बात समझ भी रही थी कि उसके साथ क्या हो रहा है या क्या होनेवाला है या क्या-क्या शंकाएं हो सकती हैं... अपने बच्चे को डॉक्टर या इंजिनियर या कोई आईटी प्रोफेशनल या एक बड़े एंकर के रुप में देखने का सपना संजोए हुए माता-पिता ने कभी बच्चे को पढ़ाई के अलावा इन प्रोफेशनलों में आनेवाली निजी दिक्कतों के बारे में जानकारी दी है।

   पापा ने मुझे मेरे किसी भी प्रोफेशन के चुनाव से पहले ही कई बातें सामान्य बातचीत के दौरान ही समझा दी थी। लगभग दस साल पहले की बात होगी। मैं फर्स्ट इयर में थी और हमारे घर पापा के मित्र की बेटी रहने आई थी। दीदी की नौकरी भोपाल से शुरु हुए एक नए अखबार में लग गई थी। कुछ ही दिन में दीदी को अखबार की ओर से बढ़िया-सा फ्लैट और स्कूटी मिल गई। फिर दीपावली के दिन जब पापा ने उन्हें बुलाने के लिए फोन किया तो दीदी ने ऑफिस में होनेवाली की पूजा की जानकारी दी और घर आने में असर्मथता जताई। उस दिन पहली बार पापा ने मुझसे बात की। मुझे बताया कि घर के बाहर आप जहाँ भी जाते हैं, रहते हैं, काम करते हैं, दोस्त बनाते हैं... उस हर जगह पर आपको अपनी एक परिधि तय करना चाहिए। आप कितना काम करेंगे और कहाँ जाकर आप ना कहेंगे ये आपको मालूम होना चाहिए... उस वक्त मुझे बात कुछ समझ नहीं आई थी। लेकिन, मैंने सुन ली थी। कुछ ही दिनों में दीदी परेशान-सी हालत में घर आई। मम्मी कुछ समझ नहीं पाई लेकिन, पापा समझ गए। कुछ बातचीत हुई और पापा के साथ जाकर दीदी ने फ्लैट से अपना सामान निकाला और उसके बाद वो हमेशा के लिए घर लौट गई। उस दिन फिर पापा ने मुझे ये बात समझाई कि आपकी सरलता सिर्फ़ आप तक सीमित है बाहर निकलते ही आपको लोगों की कुटिलता और परिस्थिति की जटिलता समझ आनी ज़रुरी है...


    हाल ही में हुए हादसे के बाद मेरे मन में यहीं सवाल उठ रहा है कि क्या कभी उस लड़की के माता-पिता या शिक्षकों ने उसे ये समझाया होगा कि ऐसी परिस्थितियों से कैसे निपटा जाता है या फिर कैसे वो ये समझे कि क्या हो रहा है या फिर विवेक का इस्तेमाल कैसे और कब किया जाता हैं। माना कि हम सभी अपने अनुभवों से सीख लेते हैं लेकिन, क्या हमारे वो अनुभव किसी और के लिए पहली सीढ़ी पर ही सीख नहीं बन सकते हैं। आखिर क्यों हमारे घरों में बच्चों से हर मुद्दे बात नहीं होती हैं... क्यों बच्चे को किताबी ज्ञान के साथ लोगों के व्यवहार और हरकतों से निपटने के गुर नहीं सिखाए जाते हैं... 

1 comment:

amita said...

99% mata-pita is tarah ki koi seekh bachcho ko nhi dete.