कई बार... लगभग रोज़ाना... मैट्रो के महिला कोच
में मैं कुछ नया देखती हूँ। कभी मज़ेदार, तो कभी परेशान कर देनेवाला। लेकिन, देखती
ज़रुर हूँ। मैट्रो में सफ़र के दौरान ना तो मुझे कुछ पढ़ना भाता है ना ही कुछ
खेलना ना ही कुछ सुनना। इस दौरान मन ही मन कई बार किसी बातचीत का हिस्सा हो जाने
का मन हो जाता हैं, कई बार लोगों की तथ्यात्मक ग़लती को सुधारने का मन करता हैं।
कई बार कुछ लोगों को सुनाने का, समझाने का मन करता हैं। ये सलाहें भी ऐसी हैं जो
मैंने कभी दी तो नहीं हैं। लेकिन, मन बहुत बार हुआ है...
1. हाँ जी मैडम आप... आप कृप्या करके अपना सामान
पकड़कर शांति से खड़े हो जाओ... मेरा कंधा आपके सहारे के लिए नहीं बना है। इतनी
भीड़ में ही आपको आपके बैग से निकालकर डेल्ही टाइम्स में सिद्धार्थ मल्हौत्रा के
अफेयर के बारे में पढ़ना हैं। बैठकर पढ़ लेना, जितनी बार मैट्रो में ब्रैक लग रहा
है आप मुझ पर गिरे जा रही हैं। एक तो आपके पास दो-दो बैग हैं। इतने भारी-भारी। रहम
करो मैडम...
2. यार तुम राजीव चौक से तो चढ़ी हो केन्द्रीय
सचिवालय पर उतर भी जाती हो। दो स्टेशन के लिए भी तुम्हें कैन्डी क्रश खेलना होता
है। उसे खोलने और नेटवर्क की तलाश में कितना उह्ह... हुह्ह... करती हो। हम सुरंग
में रहते है पूरे समय जब भी तुम्हारा दूसरावाला मोबाइल बजता है हर बार तुम बोल
देती हो बाद में बात करना नेटवर्क नहीं हैं और कैन्डी क्रश की लाइफ़ पाने के लिए
मोबाइल को ठोकती रहती हो... इतना क्यों परेशानी रहती हो...
3. आज फिर वहीं वाली बात... आज तो कुछ नया बोलना
चाहिए था। मैट्रो तो तीन दिन पहले देर से चल रही थी। तब भी एक घंटे की देरी को
तुमने सामनेवाले को मेरे सामने दो घंटे बोल दिया था... आज तो हर बार की तरह ही
यमुना बैंक पर वैशालीवाली को क्रॉसिंग दे है मैट्रो ने। तुम ही तो देर से घर से
निकलती हो तब भी तुम्हारे लेट होने का बोझ हर बार मैट्रो अपने सर ले लेती हैं...
देखो ग़लत बात है ये तो...
4. चिंता मत करो। बहुत अच्छी लग रही हो। अरे बाल फिर
दांई से बांई ओर कर लिए। तुम भी ना... बस खड़ी रहो ना शांति से गिर जाओगी...
मैट्रो के दरवाज़े में ही तुम खुद को इतना देख लोगी तो बाक़ी कब देखेंगे तुम्हें...
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