उन्होंने मुझे कभी मैडम नहीं बोला। हर बार
सा’ब। कितनी ही बार मैंने कहा कि मैं साहब
नहीं हूँ। लेकिन, वो मानते ही नहीं थे जब भी किचनेट में जाओ वो- “आइए सा’ब...” बोलकर ही मिलते। ये थे रामजनमजी। ऑफिस की
कैंटिन में काम करनेवाले रेल्वे के कर्मचारी। कल अचानक ही जब कैंटीन के दो लोगों
को बात करते सुना तो मालूम चला कि अब वो इस दुनिया में नहीं रहे। पूछने पर बताया
कि वो बहुत दिनों से बीमार चल रहे थे। तब अचानक लगा कि अरे हाँ रामजनमजी तो लंबे
समय से नज़र नहीं आएं। मन उदास हो गया।
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मेरे कॉफी कप पर उनकी हमेशा नज़र होती थी... इधर मैंने पिया उधर उन्होंने उसे तपाक से उठाया... |
उनसे की हुई हर बात तब से ही मेरे मन में घूम
रही है। वो हमेशा ही एक झल्लाहट में रहते थे। एक चिढ़-चिढ़े बुज़ुर्ग। छोटी-सी
किचनेट के कोने में बैठकर खैनी खाते रहते थे। मैंने उन्हें बहुत कम कॉफी बनाते
देखा था। उनका काम शायद परोसना और कप-प्लैट उठाना था। ना जाने क्यों उन्हें ये
लगता था कि मैं हमेशा गुस्से में रहती हूँ। शायद मेरी ऊंची आवाज़ की वजह से। उनके
साथ शांति से शुरु हुई मेरी बातचीत थोड़ी ही देर में लड़ाई में तब्दील हो जाती थी।
मैं उनसे बार-बार पूछती थी कि आपके नाम का अर्थ क्या है। रामजनम- आपने राम का जनम
पाया है या आप राम के यहाँ जन्मे हो?
वो खिसियाकर कहते- “हमको नहीं मालूम सा’ब आप ही समझ लो। हम इतना नहीं सोचते।“ मैं अपनी आदत के अनुसार हरेक से बात करती
हूँ सो, उनसे से भी करती थी। लेकिन, लगभग हर बात का जवाब वो चिढ़कर ही देते। पिछले
कुछ दिनों में मैंने उनसे बात करना कम कर दिया था। फिर वो भी नज़र आना बंद हो गए।
और, अब जब वो नहीं है तो मन में आ रहा है कि ऐसा क्या होगा उनकी ज़िंदगी में जो वो
इतना गुस्से और चिढ़ में रहा करते थे। ना जाने क्या तकलीफ़ होगी उन्हें। मन में इस
बात का अफसोस है कि आखिरी बार मैं उनसे ठीक से मिल भी नहीं पाई। ईश्वर उनकी आत्मा
को शांति दे।
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