Tuesday, February 4, 2014

"आई एम कलाम" से "आज तो बब्लू हैप्पी है" तक...

आज तो बब्लू हैप्पी है... ये नाम है जल्द ही रीलीज़ होनेवाली फिल्म का। फिल्म का टाइटल ट्रैक लगातार टीवी और एफ़एम पर बजकर-बजकर लोगों के मुंह पर चढ़ चुका है। फिल्म का जो प्रोमो टीवी पर दिखाया जा रहा है उसमें एक लड़का मेडिकल स्टोर पर कंडोम खरीदने जाता है और, उसे ये जानकर आश्चर्य होता है कि स्टोर के मालिक की बेटी और पत्नी कंडोम के बारे में जानती है और आराम से बात कर लेती हैं। अजीब और कुछ-कुछ वाहियात-सी लगनेवाली इस फिल्म में इसे टैबू के रूप में क्यों दिखाया जा रहा है। फिल्म प्रोमो में ही अश्लील संवाद और सीन की भरमार है जो फिल्म के बारे में समझा जाता है। और, इस अश्लीलता के बीच किसी मेडिकल की दुकान पर कंडोम बेचनेवाली महिला के बारे में ऐसा आश्चर्य किस बात के लिए? हमारी सिनेमा में दोहरा व्यवहार और सामान्य हो रही या हो चुकी बात का मज़ाक उड़ा देना और उसे ओओओ... हायय... राम... की कैटेगरी में फिर ले आना आम बात है। गूगल में सर्च करने पर मालूम चला कि फिल्म के निर्देशक नीला मधब पांडा है जिनकी पहली फिल्म आई एम कलाम थी।  विकीपीडिया में उनके बारे में पढ़ने पर मालूम चला कि वो काफ़ी पढ़े लिखे व्यक्ति है। मेरे लिए ये बात और अधिक आश्चर्य की है। मैं सोचने पर मज़ूबर कि क्या पांडा की पहली फिल्म गलती से अच्छी बन गई थी या बाज़ार के दबाव में उन्होंने दूसरी फिल्म ऐसी वाहियात बनाई है... इतना ही नहीं फिल्म के लेखक संजय चौहान है। ये वहीं संजय चौहान है जिन्होंने आई एम कलाम लिखी थी। जिसके लिए उन्हें अवार्ड भी मिले थे। संजय, तिग्मांशु धूलिया के साथ पान सिंह तोमर और साहब, बीवी और गैंगस्टर लिख चुके हैं। मैंने गांधी को नहीं मारा के संवाद भी उन्हीं के खाते में हैं। क्या आज तो बब्लू हैप्पी है जैसी फिल्म बनाना इन दोनों के लिए ही ज़रुरी था? क्या वो इनके बिना सफलता नहीं पा सकते थे। आखिर ऐसा क्या है जो बहुत अच्छी फिल्में बना चुके ये लोग इस तरह के सिनेमा को भी गढ़ते हैं....

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