अक्षरधाम मैट्रो स्टेशन से मेरे घर की ओर जानेवाले
फुटओवर ब्रिज पर दो भिखारी (अलग-अलग शिफ्ट में) बैठते हैं, कभी-कभी इस्कॉन से
जुड़े कुछ लोग गीता बेचते मिल जाते हैं, तो कभी कैंसर सोसाइटी से जुड़ा एक व्यक्ति
दान पेटी लेकर खड़ा रहता है और साथ ही रोज़ाना कुछ नए लड़के-लड़कियाँ पर्चे बांटते
मिल जाते हैं (कुछ 20 हज़ार की नौकरी की दिलवाने का वादा करता है, तो कोई सेहत
सुधार का)। मैं ना तो किसी भिखारी को पैसे देती हूँ, ना दान देती हूँ और ना ही
किसी पर्चे को लेती हूँ। इस मामले में मैं बहुत सख्त हूँ। मेरा दिल पिघलाना
मुश्किल काम है। पिछले शुक्रवार की रात विश्व पुस्तक मेले से लौटते-लौटते रात के
नौ बज गए थे। फुट ओवर ब्रिज पर एक वृद्ध पर्चे बांट रहे थे। मैंने उन्हें देखा और मेरे
चेहरे पर पहले ही एक सख्ती आ गई थी। पर्चा ना लेने की सख्ती। मैं दूसरी तरफ हो गई।
लेकिन, पीछे से ऐसी भीड़ आई कि वो बुज़ुर्ग मेरे सामने पड़ गए। मैंने बेहद झल्लाते
हुए उनकी ओर देखने के लिए चेहरा उठाया ही था कि मेरी नज़र उनके कांपते हुए हाथों
पर रुक गई। वो उन कांपते हुए हाथों से मेरी ओर पर्चा बढ़ा चुके थे। मेरा हाथ अचानक
ही आगे बढ़ा और मैंने उस पर्चे को ले लिया। मैं उनका चेहरा देखती इसके पहले ही वो
आगे बढ़ गए। उस पर्चे पर हर बीमारी का अचूक इलाज मिलने का दावा किया था। थोड़ा आगे
बढ़ने पर मैं रुकी और पलटकर मैंने उनकी ओर देखा। वो धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए हरेक
को वो पर्चा देने की कोशिश कर रहे थे। लोग उनसे वो पर्चा लेते और वहीं उनके सामने
फेंककर बिना रुके निकल जाते। लेकिन, मैं उस पर्चे को फेंक नहीं पाई.... वारेन
हैग्सिंट के सांड में वो पर्चा अब हमेशा के लिए रहेगा।
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