
लेकिन,
सिनेमा के शुरु होते है सारी हिदायतें गायब हो जाती हैं। सबसे पहले आगे बैठे
लड़कों का झुंड हर सीन का कचरा करना, ज़ोर-ज़ोर से हंसना और वाहियात बातों की
शुरुआत करता है। इसके बाद बाजू में बैठे लड़का-लड़की की बातें शुरु होती है-
“अरे! मैं यहाँ जा चुका
हूँ।“
“अरे! गजब की जगह है तुम भी चलना कभी मेरे
साथ...”
“अच्छा तुम कब गए थे???”
“कोई होगी तुम्हारी दूसरी गर्लफ्रेंड हुह्ह्ह...”
“अरे! नहीं बाबा...”
“अच्छा ये देखो इस पहाड़ के पीछे चीन है...”
और, फिर ब्ला... ब्ला... ब्ला...
अंधेरे में
फुसफुसाती इन आवाज़ों के बीच अचानक आंखों पर तेज़ रौशनी पड़ती है। लगता है, मानो
ईश्वर मुझे बचाने आ गए हो। लेकिन, नहीं ये तो सामने बैठे लड़के का बड़ावाला
स्मार्ट फोन है। जिसपर वो लगातार वॉट्स एप और फेसबुक देखे जा रहा है। अब कान के
साथ आंखों में भी दिक्कत शुरु...
इस सबके
बीच अचानक पीछे किसी का फोन बजा...
“हाँ जी कौन???
किससे बात करना है??? पप्पू से हाँ तो मैं बोल रहा हूँ.... आप बोलो...
हाँ हाँ... मैं तो फिल्म देखने आया हूँ.... हाँ... हाँ... फिल्म देखने....”
आसपासवाले पिच्च-पिच्च की आवाज़ें निकालने
लगते हैं... लेकिन, पप्पू को क्या वो तो फिल्म देखने आया हैं।
इस सबके बीच
आप जैसे-तैसे फिल्म देखते हैं। उससे जुड़ते हैं। किसी सीन पर इत्मिनान से रो रहे
होते हैं कि अचानक दूर कहीं से आवाज़ आती है-
“मम्मी
सू सू आ रही हैं... अभी चलो वर्ना निकल ही जाएगी...”
मन करता
है कि या तो अभी सभी को हॉल से बाहर हकाल दूँ या चुपचाप मैं ही बाहर चली जाऊं... लेकिन,
मैं चुपचाप वहीं बैठी रहती हूँ बिना कुछ कहे मन को दिलासा देते हुए कि आखिर किस-किस
से लड़ाई करूंगी। और, फिल्म के खत्म होने पर मुंह उठाए बाहर आ जाती हूँ... बस इस
ख्याल के साथ ना जाने कब हम सिनेमा देखना सिखेंगे...
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