ये मेरा दावा है कि अगर गलती से भी आपके हाथ में
खुशवंत सिंह की लिखी कोई किताब आ जाएम तो आपको तब तक चैन नहीं मिलेगा जब तक की आप
उसे पूरी न पढ़ ले। खुशवंत सिंह मेरे पसंदीदा लेखक हैं। किसी भी लेखक को पढ़ने
शुरुआत का मेरा अपना मानक हैं। मैं उनकी लिखी सबसे पतली किताब से शुरुआत करती हूँ।
अगर लेखन पसंद आया तो आगे और किताबें पढ़ती हूँ। इसी क्रम में मैंने खुशवंत सिंह
की लिखी लघु कथाओंवाली सबसे पतली किताब खरीदी थी। उसके बाद से लेकर अब तक मैं उनकी
लिखी कई किताबें पढ़ चुकी हूँ। और, हर पुस्तक मेले से एक किताब खुशवंत सिंह की
ज़रुर खरीदती हूँ। खुशवंत सिंह की मृत्यु की खबर सुनकर मुझे बहुत दुख हुआ। हालांकि
वो एक बेहतरीन, खुशमिजाज़ और रिच (पैसे और शोहरत के मामले में) ज़िंदगी जी कर गए
हैं। शायद ही उनकी कोई तमन्ना ऐसी होगी जो पूरी ना हुई हो। मेरा दुख थोड़ा अलग है
(आप इसे मतलबी भी मान सकते हैं)। मुझे अचानक लगा कि खुशवंत सिंह का लिखा कुछ भी
नया अब नहीं मिलेगा। खुशवंत सिंह की लेखनी मुझे मंत्रमुग्ध कर देती है। वो पेन
स्केच के ज़रिए किसी का चरित्र चित्रण हो, आत्मकथा के रुप में खुद को जताना हो या
फिर उपन्यास के रुप में फिक्शन लेखन। उनका पैनापन और बात को कहने का तरीक़ा एक-सा
तीखा और लाजवाब होता था। मुझे अफसोस है कि वो अब नहीं रहे। लेकिन, उनका लिखा मेरे
साथ है। जिसे पढ़कर आनेवाली पीढ़ियाँ ना सिर्फ़ उन्हें समझ सकती हैं बल्कि वो उनकी
ज़िंदगी के 99 साल में देश और भारत में आएं बदलावों को भी एक अलग नज़रिए से जान
सकती हैं (खासकर दिल्ली)। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा था कि उनके माँ और पिता
दोनों ही हाथ में विस्की का ग्लास लेकर मरे थे। और, वो भी यहीं चाहते थे कि मरने
से पहले वो एक पैग विस्की ज़रुर पिए। मुझे यक़ीन है कि अंतिम समय का भी उन्होंने
अपनी पसंद और अंदाज़ में जीया होगा। ईश्वर उनकी आत्म को शांति दें...
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