Thursday, March 13, 2014

चाहतें...

      एक घर, दो शिफ्ट और अनगिनत तनावों के बीच जीते दो लोग। दोनों खुद की खोज में जब निकलते हैं तो थोड़ी देर बाद याद आता हैं कि पहाड़ पर हाथ पकड़े चल रहे साथी से उसकी चाहतें पूछे ज़माना बीत गया। दोनों पहाड़ के किसी कोने पर चढ़कर बैठ जाते हैं। 

फिर... वो पूछती हैं...



तो तुम क्या चाहते हो?

मैं तो बस चलना चाहता हूँ। जो किताबें आधी पढ़ी हैं उन्हें पढ़ना चाहता हूँ। सच में सारी पढ़ सकता हूँ मैं। और, जब धूप निकले तो थोड़ी-सी पीठ को सेंकना है मुझे। एसी ऑफिस की कुर्सी पर बैठे-बैठे पूरी तरह अकड़ गई है बेचारी। बीच-बीच में अगर चाय मिल जाए तो क्या कहने। और, हाँ मैं जब सिगरेट सुलगाऊं तो प्लीज़ तुम हुह्ह्ह... मत करना।  

और, तुम क्या चाहती हो?


मैं... मैं भी चलना चाहती हूँ। लेकिन, किसी काम या मक़सद से नहीं। बस दूर तक बिना बात के। फिर जब थक जाऊं तो किसी टीले पर बैठ जाऊं। किसी पेड़ को निहारना है मुझे। कोई इंसान नहीं चाहिए मुझे कि जिसे देखकर मैं उसके बारे में सोचती रहूँ। और, हाँ मुझे कुछ पढ़ना नहीं हैं। जब तुम धूप सेंकोगे तब में साइड में चादर बिछाकर वहीं सो जाऊंगी।

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