मेरे घर से अक्षरधाम मैट्रो स्टेशन तक जाने के
लिए बने फुटओवर ब्रिज पर कुल जमा चार भिखारी बैठते है। इन्हें देखकर कई लोग भावुक
होते हैं। कई रुककर पर्स खोलकर खुल्ले टटोलते हैं, तो कुछ पहले से ही हाथ में
खुल्ले पकड़े होते हैं। इन सभी को यूँ पैसे देनेवालों में ज्यादातर वो लोग होते
हैं जो रोज़ाना इस फुटओवर ब्रिज से गुजरते हैं।
इतने समय
में मैं जान गई हूँ कि इन चारों की अपनी-अपनी शिफ्ट और जगह तय होती है। पहला
स्वचलित सीढ़ियों के पास बैठता है। इस नौजवान लड़के के दोनों पैर नहीं है। वो अपनी
बैसाखियों सहित वहाँ बैठता हैं। आने जानेवाले अधिकतर लोग उसके पहचान के होते हैं।
वो मेरे ही मोहल्ले में रहता हैं और यहाँ बैठना उसका पार्ट टाइम जॉब-सा है।
दूसरा भी
स्वचलित सीढ़ियों के पास बैठता है। लेकिन, वो ऊपर की ओर बैठता है। उसका एक पैर
नहीं है। वो अपने नकली पैर को गद्दे के नीचे वहीं छुपाकर उस पर बैठ जाता है। देर
शाम को उसे पहनकर वो उतरता है और जमा हुए पैसों से मेरी गली में लिट्टी-चोखा खाता
है और तब ही घर जाता है।
तीसरा
फुटओवर ब्रिज के बीचों-बीच बैठता है। उसकी आंखें कमज़ोर है। मोटा-सा चश्मा लगाता
है। अपने ड्यूटी ऑर्स में वो उस चश्मे वो उतार देता है। बाक़ी मैंने उसे सुबह
अखबार पढ़ते कई बार देखा है।
चौथी एक
महिला है जो मैट्रो स्टेशन के गेट के ठीक आगे बैठती है। उसके साथ उसके दो बच्चे
होते हैं। जिन्हें वो अधिकांशतः सुलाकर रखती है। जिससे वो बीमार महसूस हो सके। ये
महिला बेहतरीन एक्टर है। ऐसी अभागी और हैरान-परेशान बनने की एक्टिंग करती है कि
कोई भी चकमा खा जाए। हालांकि उसकी ऊर्जा उसके दोनों बेटों को मार-मारकर सुलाने में
ज्यादा खर्च होती है।
ये चारों मेरे मोहल्ले में ही रहते हैं। इसके
अलावा सभी के पास अपने दूसरे काम है, परिवार है। एक तरह से यहाँ बैठना और पैसे
मांगना इनके लिए पॉकेटमनी जुगाड़े जैसा है। इस रास्ते से कभी-कभार गुज़रनेवाला भी
आसानी से जान सकता हैं कि यहाँ बैठना इनकी मजबूरी नहीं धंधा है। लेकिन, इन्हें पैसे
देनेवालों में अधिकतर वो लोग है जो रोज़ाना इस रास्ते से गुज़रते हैं। और, मैं
रोज़ाना इस रास्ते सोचती चलती हूँ कि कौन ज्यादा अजीब हैं? वो जो भीख
मांग रहे हैं या वो जो इन्हें ये पैसे दे रहे हैं...
2 comments:
Ek teesra bhi ajeeb hai.... The one who observes arbit things so keenly.
अच्छा विवरण !
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