Sunday, September 14, 2014

सहजता से विश्वास तोड़ते लोग

पिछले दिनों मध्यप्रदेश हिंदी  साहित्य सम्मेलन की ओर से वागेश्वरी सम्मान की घोषणा की गई। एक मित्र के ज़रिये जानकारी मिली ।  वागेश्वरी सम्मान में प्रविष्टि की अंतिम तिथि जानने के लिए मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के दफ्तर में फोन लगाया तो वहां मालूम चला कि अंतिम तिथि 15 अक्टूबर है। दो तीन लोगों ने अलग अलग फोन लगाया, सभी को वहां यही जानकारी दी गई कि अंतिम तिथि 15 अक्टूबर है ।  
अब जब हमारे साथी भोपाल पहुंचे तो उन्होंने पता जानने के लिए जब दोबारा मध्यप्रदेश साहित्य सम्मेलन के दफ्तर में फोन किया तो उन्हें जानकारी मिली की अंतिम तिथि तो निकल चुकी है.  मेरी मित्र ने उनसे बोला कि आप के दफ्तर में ही लोगों के बीच में संप्रेषण नहीं है और आप लोग ग़लत जानकारी दे रहे हैं जिससे कोई व्यक्ति पात्र होने के बावजूद प्रतियोगिता में हिस्सा नहीं ले सका तो किसी टुच्चे कस्टमर केयर के सर्विस सेंटर की तरह उन बंधु ने मैं समझ सकता हूं कह कर रटा रटाया अफसोस जता दिया। गोया वो कह रहे हों कि हम तो आदत से मजबूर हैं, अफसोस है ये आदत छूटती ही नहीं । खैर उन्होंनें रटा रटाया जुमला दोहराते हुए मेरी मित्र को किसी पलाश सुरजन का नंबर थमा दिया। शायद ये महानुभाव ही इस सम्मेलन के कर्ता धर्ता है। बाद में फेसबुक पर देखी गई जानकारी के बाद मालूम चला कि पलाश सुरजन देशबंधु प्रकाशन समूह के संपादक हैं।
पलाश जी ने भी फोन पर कहा कि अंतिम तिथि तो 15 अगस्त ही थी। जब उनको ये बताया गया कि हमें गलत जानकारी दी गई है तो उन्होंने ब़ड़ी आसानी से कहा कि पिछले वर्ष अंतिम तिथि 15 अक्टूबर थी इसलिए ऐसा कह दिया गया होगा। जब उन्हें हमने ये कहा कि हम इस प्रतियोगिता के लिए पात्र और योग्य थे किंतु आप के दफ्तर की लापरवाही वाले रवैये की वजह से हम पहले ही अपात्र घोषित कर दिये गये हैं। तो उन्होंने  हंसते हुए जवाब दिया कि ये आप कैसे निर्धारित कर सकते हैं कि आप पात्र हैं। शायद उन्हें मेरी बात से ये लगा कि मैं ये सोच कर बैठा हूं कि सम्मान तो मुझ ही मिलना है। यही नहीं, उन्होंने ये भी कहा कि आपको पहले हमसे संपर्क साधना चाहिए था जैसे आप अब बात कर रहे हैं । मैं हैरत में था कि अगर हम अधिकृत दफ्तर में फोन लगा रहे हैं और वहां का व्यक्ति एक बार नहीं दो-दो बार एक ही जानकारी दे रहा है तो कोई उस पर विश्वास करे कि शंका करे ? सबसे ख़ास बात ये है कि  जिस तरह पलाश सुरजन ने बड़ी ही सहजता के साथ ये कह दिया कि अब कुछ नहीं हो सकता क्योंकि अब तो निर्णायक मंडल बन गया है और प्रविष्टि आ चुकी हैं। उनके अफसोस ज़ाहिर करने में शायद एक खीझ थी। लेकिन शायद उन्हे इस बात का अहसास ही नहीं था कि जब वो ये बोल रहे हैं तो दूसरी तरफ सुनने वाले पर क्या बीत रही होगी। दरअसल ये वो लोग हैं जिन्हें कोई फर्क ही नहीं पड़ता है कि उनकी लापरवाही से क्या हुआ है। शायद पलाश जी या उनके संगी साथी को इस लापरवाही का अहसास तब होगा जब उनके साथ या उनके किसी अपने को इसी लापरवाही से दो चार होना पड़ेगा । चूंकि इन लोगों को इस बात का अहसास नहीं है इसलिए वहां पर बैठे व्यक्ति ने इतनी सहजता के साथ एक ग़लत तारीख बता दी। चूंकि पलाश सुरजन को फर्क नहीं पड़ता इसलिए उन्होंने पहली बार में सहजता के साथ दोहरा दिया कि उन लोगों को पिछली बार की तारीख याद होगी। चूंकि साहित्य का सम्मान वो लोग दे रहे हैं जिन्हें शायद खुद साहित्य की कदर नहीं है इसलिए वो आदतन लापरवाह हैं।
यही सोच सुभाष शर्मा में भी देखने को मिली जिन्होंने 31 अगस्त में जनसत्ता के रविवारी अंक में गंगा- आस्था और आजीविका के दायरे लेख लिखा। लेख के शुरूआत में उन्होंने चंद्रमौली जी की पुस्तक का ज़िक्र किया । आगे चलते हुए उनके लेख में बहुत सारे बिंदु आए जिन्हें हमारी पुस्तक दर दर गंगे से लिया गया था। किंतु उन्होंने कहीं भी पुस्तक का ज़िक्र करना मुनासिब नहीं समझा। क्योंकि नए लेखकों के प्रति उनका लापरवाह नज़रिया इस बात की इजाज़त नहीं दे रहा होगा। यही वजह है कि काल्पनिक चरित्रों और कहानी के माध्यम से हकीकत दर्शाती पुस्तक में गढ़ा गया मंगल दल’, सुभाष शर्मा को असली मंगल दल नज़र आया। उन्होंने उसका इसी तरह उल्लेख कर दिया। ऐसा बहुत कुछ उन्होने लिखा जिसे यहां बताने के लिए उस पूरे लेख को दोबारा लिखना होगा ।
कविता संग्रह रेहड़ी को लेकर जब मैंने हंस के दफ्तर में संपर्क किया तो वहां बड़ी ही सहजता से कह दिया गया कि हंस, कविता की समीक्षा नहीं करता है, लेकिन हां, कविता छापता ज़रूर है। इस बात को लेकर जब दिवंगत राजेन्द्र यादव जी को लंबा पंत्र लिखा तो उनका एक वाक्य का उत्तर आया - जनाब पुस्तक को समीक्षा के लिए हंस के दफ्तर ले आएं या डाक से भिजवा दें। ये बात समझ के बाहर है कि अगर हंस समीक्षा नहीं छापता तो दिवंगत राजेन्द्र यादव जी को ये लिखने की क्या ज़रूरत बन गई। बीते दिनों जाने माने कवि आलोक धन्वा ने बीबीसी के साथ बातचीत में कहा था कि युवाओं के लेखन में बौद्धिक गहराई कम देखने को मिलती है। युवा लेखकों में सामाजिक सरोकारों की कमी आती जा रही है। युवा एक पिद्दी फाइट में जुटे हुए हैं।
हम हिंदी से प्यार  करते हैं, हिंदी के लिए नहीं, हिंदी में कुछ करना चाहते हैं। लेकिन क्या ये सब इस सोच के साथ संभव है। यहां तो जो वरिष्ठ बैठे हैं वो इतने लिजलिजे और उदासीन  रवैया लिए हुए है जो बैठे बैठे आपको नकारात्मक कर देंगे। ये वरिष्ठ एक मंच पर बैठे हैं और वो चाहते हैं कि युवा मंच के नीचे से गर्दन उठाकर सिर्फ उन्हें सुने, उनके साथ कुछ कहे नहीं। अपने अंहकार को सर पर बैठाये, लापरवाह उदासीन रवैया दिल में बसाये बस ये सहजता के साथ किसी युवा के काम को नकार सकते हैं, उसकी भाषा में त्रुटि निकाल सकते हैं या फिर प्रवेश करने से रोक सकते हैं। वो भी बगैर अशिष्ट हुए ।
वाकई में इन वरिष्ठों के सामने अनुभव में, उम्र में हर बात में हम कनिष्ठ ही हैं लेकिन अफसोस के साथ कहना होगा कि इन वरिष्ठों से हम कुछ सीखना भी नहीं चाहते हैं ।

पंकज रामेन्दु

स्वतंत्र लेखक

3 comments:

अनूप शुक्ल said...

हिन्दी में छपने-छपाने और इनाम के माहौल के बारे में सटीक लेख ! :)

डॉ. सुधीर शर्मा said...

आपकी रचनाओं का स्वागत है मासिक छत्तीसगढ मित्र के लिए मेल करें chhattisgarhmitra@gmail.com

डॉ. सुधीर शर्मा said...

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