Friday, October 2, 2020

परीक्षा, पाठ्यक्रम और प्रश्नपत्र ने उलझाया, गाँधीजी की पुस्तक ने बचाया- राजा दुबे

 राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचार और दर्शन को कभी रुचि के साथ पढ़ा हो यह ध्यान नहीं आ रहा है मगर अपनी ग्रेजुएशन के दौरान एक मौका ऐसा भी आया जब महात्मा गाँधी की आत्मकथात्मक पुस्तक -" मेरे सपनों का भारत " को पाठ्यक्रम के एक हिस्से के तौर पर पढ़ा। वर्ष 1967 में गणित-विज्ञान विषय के साथ शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, सेन्थवा से हायर सेकण्डरी की परीक्षा पास करने के बाद विज्ञान विषयों मे स्नातकीय कक्षाओं की 


 सुविधा सेन्धवा में न होने से अपने ननिहाल उज्जैन चला गया। वहाँ माधव कॉलेज से बी.एस-सी. फर्स्ट ईयर में बुरी तरह से फेल होकर सेन्धवा लौटा। पहले सोचा अच्छा मौकाहै कि बी.ए. की  कक्षाएं ज्वाईन कर गणित-विज्ञान की कठिन लग रही पढ़ाई से छुटकारा पाया जाये। मगर उसी साल मध्यप्रदेश सरकार ने इंटरमीडिएट की परीक्षा का प्रवधान लागू किया और एक ही साल रही। उस इंटरमीडिएट व्यवस्था में मैंने फिर गणित-विज्ञान विषय लिया और सेकण्ड डिवीजन पास होने के साथ ही तय हो गया कि अब गणित-विज्ञान की पढ़ाई को अलविदा कहना है। 


वर्ष 1968 का विज्ञान विषय में स्नातक होने का खण्डित सपना वर्ष 1970 में वाणिज्य विषय में स्नातक होने से जुड़ा और इंटरमीडिएट पास होने से
सीधे बी.कॉम. सेकण्ड ईयर में सेन्धवा के इकलौते निजी कॉलेज में एडमीशन हो गया। यहीं ग्रुप 'ए' मे एक पेपर था सामान्य हिन्दी का। एक छोटे-से कस्बे का कुल छ: कक्षाओं और उससे दो- चार ज्यादा कमरों वाला कॉलेज जिसमें सभी कक्षाओं के छात्राओं की एक सौ पाँच दर्ज संख्या थी.अब इस कॉलेज का कोई छपा हुआ सेलेबस तो था नहीं। एक दिन प्रिन्सिपल ने कक्षा में आकर बताया बी.काम. सेकण्ड ईयर के सामान्य हिन्दी के पाठ्यक्रम में महात्मा गाँधी की पुस्तक - " मेरे सपनों का भारत " या रामचन्द्र सुमन की पुस्तक - "जीवन यज्ञ" रहेगी. गाँधीजी की पुस्तक के पक्ष में अधिकांश सहपाठी थे अत: तय हुआ हम गाँधीजी की पुस्तक - "मेरे सपनों के भारत" को ही पढ़ेंगे।

जैसा कि मैंने पहले ही बताया था निजी महाविद्यालय होने से पाठ्यक्रम की एक ही प्रति होती थी जो प्रिन्सिपल के पास रहती थी और शिक्षक भी उसी में से  अपने-अपने विषय का कोर्स नोट कर लेते थे, अब बात हो जाये उस एक बड़ी भूल की जो हमें पाठ्यक्रम के बारे में बताते समय हुई थी। दरअसल पाठ्यक्रम में छपा था कि बी.काम. सेकण्ड ईयर में सामान्य हिन्दी के अंतर्गत महात्मा गाँधी की पुस्तक - "मेरे सपनों का भारत" और रामचन्द्र सुमन की पुस्तक - "जीवन यज्ञ "शामिल होगी। दुर्भाग्य से पाठ्यक्रम में दोनों पुस्तकों के नाम के बीच छपे - "और" में और की मात्रा नहीं छप पाई और वह शब्द - " आर " पढ़ा गया और उसका अर्थ भी बिना दिमाग लगाये आँग्ल भाषा का ओ-आर यानी - "या" लगा लिया गया और हमने भी गाँधीजी की लिखी पुस्तक - "मेरे सपनों का भारत" चुन ली।

इस एक बड़ी भूल का पता चला जब परीक्षा में सामान्य हिन्दी का पर्चा हाथ में आया। परचे में दस सवाल थे. पाँच - "मेरे सपनों के भारत से" और पांच
- "जीवन यज्ञ" से. दस में से पाँच सवालों के जवाब देने थे। हम सब परीक्षार्थियों ने "जीवन यज्ञ" तो पढ़ी नहीं थी। इनविजिलेटर जो अर्थशास्त्र पढ़ाते थे उन्होंने इस मामले में कोई भी निर्णय न ले पाने की बात कही। प्राचार्य को बुलाया गया, उन्होंने भी यही कहा कि अभी तो कुछ भी नहीं हो सकता अभी तो मेरे सपनों के भारत पुस्तक से पूछे गये पाँचों सवाल के उत्तर देने होंगे। गोया गाँधीजी को लेकर हमारी कड़ी परीक्षा हो गई। जब पर्चा हाथ में आया था तब प्रश्न और खासतौर पर जीवन यज्ञ पुस्तक के प्रश्न पढ़कर एक सहपाठी बुदबुदाया भी था कि क्या इस पेपर में कुछ अपठित भी पूछने वाले थे? एक सहपाठी ने तो भगवान को धन्यवाद दिया कि प्रश्न पत्र बनाने वाले ने दो पुस्तकों के पाँच-पाँच प्रश्नों के दो खण्ड बनाकर हर खण्ड से दो प्रश्न अनिवार्य नहीं किये  वरना सब तीन प्रश्न ही हल कर पाते या फिर दो प्रश्नों के जवाब के लिये कल्पना के घोड़े दौड़ाते.वैसे रिजल्ट आने पर सबने गाँधीजी को दिल से धन्यवाद दिया कि किसी भी छात्र को (वाणिज्य की कक्षाओं में छात्राएं नहीं थीं) पचास में से सत्ताईस से कम अंक नहीं आये थे और इस नाचीज़ को गाँधीजी की उस रोचक पुस्तक पढ़ने के ऐवज में चौंतीस अंक मिले थे।

राजा दुबे

No comments: