Friday, December 11, 2020

स्मृति शेष: मंगलेश डबराल- राजा दुबे

 


मंगलेश डबराल , समकालीन चर्चित रचनाकारों में अग्रगण्य थे

वरिष्ठ कवि,पत्रकार और पटकथा लेखक मंगलेश डबराल का बुधवार, 09 दिसम्बर 2020 को निधन हो गया। वे बहत्तर साल के थे और कोरोना से संक्रमित थे। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कवि-लेखक मंगलेश डबराल हिन्दी के समकालीन चर्चित कवियों में अग्रगण्य थे।मंगलेश डबराल ने कविता, डायरी, गद्य, अनुवाद, संपादन, पत्रकारिता और पटकथा लेखन जैसी साहित्य की विविध विधाओं में समान अधिकार के साथ लेखन किया। मंगलेश डबराल का जन्म,14 मई 1948 को टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड के काफलपानी गांव में हुआ था। आपकी शुरुआती शिक्षा दीक्षा देहरादून में हुई। मंगलेश डबराल ने साहित्यिक सफर इलाहाबाद से ही शुरू किया था और पत्रकारिता की धार भी उन्हें इलाहाबाद से ही मिली। इलाहाबाद में उन्होंने - "अमृत प्रभात " में घूमता आइना स्तंभ शुरू किया था, जिसे उनके कवि मित्र वीरेन डंगवाल लिखा करते थे। रामजी पांडेय, मंगलेश डबराल और वीरेन डंगवाल की तिकड़ी को महादेवी जी त्रिदेव कहा करती थीं। तब कॉफी हाउस में मंगलेश भाई नियमित बैठकी करते थे। उन्हें विजय देव नारायण साही जी संग कविता पर विमर्श करते देखा। उन्हीं दिनों उनका पहला कविता संग्रह - " पहाड़ पर लालटेन " प्रकाशित हुआ था । कविता को जीवन मूल्यों की ही तरह उन्होंने जिया, कभी ठेठ कवि सम्मेलनी माहौल में भी उन्हें जनता से गंभीर संवाद करते देखा। एक बार भोपाल में उनके कविता संग्रह 'घर का रास्ता' पर विमर्श हुआ। आयोजक थे कवि भगवत रावत। उन्होंने कहा था कि घर का रास्ता ही वस्तुत: कविता का रास्ता है, क्योंकि यह नए मनुष्य की प्रतिष्ठा करती है।   

बहुविध लेखन के साथ मंगलेश डबराल ने कविता के क्षेत्र में उत्कृष्ट लेखन किया

मंगलेशजी ने साहित्य और पत्रकारिता की विभिन्न
विधाओं में लेखन किया मगर आलोचकों और सुधी
पाठकों का मानना है कि कविता विधा में उनका लेखन उत्कृष्ट रहा । मंगलेशजी की कई किताबें और संग्रह छाप चुके हैं ।पहाड़ पर लालटेन, घर का रास्ता, हम जो देखते हैं, आवाज़ भी एक जगह है और नये युग में शत्रु- मंगलेश के पाँच चर्चित काव्य संग्रह हैं।मंगलेश डबराल जनसत्ता के साहित्य संपादक भी रह चुके हैं ।इसके अलावा, उन्होंने कुछ समय तक लखनऊ से प्रकाशित होने वाले अमृत प्रभात में भी नौकरी की ।इस समय वे नेशनल बुक ट्रस्ट से जुड़े थे । आपकोअपने चर्चित काव्य संग्रह - "हम जो देखते हैं " के लिये वर्ष 2000 में साहित्य अकादमी सम्मान से
अलंकृत किया गया था। दिल्ली हिन्दी अकादमी के साहित्यकार सम्मान और  कुमार विकल स्मृति पुरस्कार से सम्मानित मंगलेश डबराल एक उत्कृष्ट अनुवादक के रूप में भी जाने जाते हैं । मंगलेश डबराल की कविताओं के भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन, डच, स्पेनिश,पुर्तगाली, इतालवी, फ़्रांसीसी, पोलिश और बुल्गारियाई भाषाओं में भी अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं ।कविता के अतिरिक्त वे साहित्य, सिनेमा, संचार माध्यम और संस्कृति के विषयों पर नियमित लेखन भी किया करते थे ।

मंगलेश, तुम पर वृत्तचित्र बना तो पटकथा कौन लिखेगा?

मंगलेश डबराल के कई अभिन्न मित्रों काउन्होंनेे सुप्रसिद्ध लेखकों बाबा नागार्जुन ,निर्मल वर्मा , यू.आर.अनंतमूर्ति , महाश्वेता देवी , कुर्रतुल ऐन हैदर और गुरदयालसिंह पर केंद्रित वृत्त चित्रों का पटकथा लेखन किया. एक बार तो जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी ने उनकी मेधा पर बड़ी मजाहिया टिप्पणी की थी कि भविष्य में यदि मंगलेश तुम पर केन्द्रित वृतचित्र बनातो उसकी पटकथा कौन लिखेगा?  फिर अपनी ही इस टिप्पणी को विस्तार देते हुए प्रभाषजी ने कहा था कि मंगलेश ऐसा करो तुम को तुम से अच्छा कौन जानता है ? तो तुम ऐसा करो करो तुम अपने ऊपर
बनने वाले वृत्तचित्र की पटकथा खुद ही लिख दो । इस टिप्पणी पर तब मंगलेश मुस्कराये थे मगर इस विधा में वाकई मंगलेश लाजवाब थे। पटकथा लेखन
की एक राष्ट्रीय कार्यशाला में उन्होंने कहा भी था कि इस विधा में मुझे लगता है आपका तटस्थ होना बेहद
जरुरी है । यदि आप बाबा नागार्जुन पर वृत्तचित्र बना
रहें हैं तो उनके प्रति यदि आपके मन में यदि श्रद्धाभाव है तब आपको पटकथा लिखते समय उसे मन से कुछ समय के लिये निकालना ही होगा । मंगलेश मानते थे कि एक लेखक की पटकथा में उसकी सृजनात्मक पृष्ठभूमि का उल्लेख नितांत जरुरी ही नहीं अनिवार्य होता है । इस विधा में उन्हें अद्भुत  दक्षता प्राप्त थी ।


कविता की ताकत और अहमियत को समझने वाले कवि थे मंगलेश

मंगलेश ने एक बार -"विश्व कविता में प्रतिरोध "विषय पर बोलते हुए कहा था कि कविता में इतनी ताकत होती है कि वो किसी भी आतातायी सत्ता को उखाड़ फैंक सकती है । डबराल अक्सर इस बात का उल्लेख करते थे कि - " हर जोर जुल्म की टक्कर में  हड़ताल हमारा नारा है " ," क्रांति के लिए उठे कदम ,क्रांति के लिए जली मशाल "और " मेरा नाम तेरा नाम , वियतनाम ,  वियतनाम " यह कविताएं उस जमाने में लिखी गईं जब अपना हक माँगने के लिए संघर्षों का दौर जारी था। भारत में ही नहीं बल्कि अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस व ब्रिटेन समेत कई देशों में कविताओं ने क्रांति को हवा दी थी और  तब से लेकर अब तक निरंकुश शासक के दमन पर कविताएं अंकुश लगा रही हैं। मंगलेश डबराल ने कहा था कि कविता ने बहुत कुछ झेला है। वह रोई भी है , चीखी भी है और चिल्लाई भी है। एक जमाना था जब कविताओं के माध्यम से सच्चाई लिखने पर गोली तक मार दी जाती थी। देश निकाला देने के अलावा मृत्यु के बाद भी रचनाकारों को अपमानित किया जाता रहा है। समय बदला मगर  कविता ने अपने तेवर नहीं बदले।आज़ भी कविता अग्निशिखा के मानिंद है । सच कहें तो डबराल कविता की ‌ताकत और अहमियत को समझने वाले कवि थे ।मंगलेश डबराल ने दुनिया के कई कवियों की रचनाओं का जिक्र करते हुए कविकर्म को बहुमूल्य बताया। वे  कहते थे , कविता की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि समय-समय पर इसने तानाशाह के सिंहासन हिलाकर रख दिये। कई कवियों ने तो सच्चाई लिखने के लिए अपने जीवन का बलिदान तक दिया। स्पेन के पाबलो नेरुदा व वॉल्टर बैंजामिन जैसे साहित्यकारों ने मानवता की रक्षा के लिए अपनी कलम चलाई। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला व सुमित्रानंदन पंत जैसे भारत के कवियों की रचनाओं ने लोगों को जीवन का सार समझाया। उस जमाने में निकलने वाले कविता पोस्टर आज भी प्रासंगिक हैं।


पहाड़ों और मैदानों के द्वंद्व से हमेशा-हमेशा के लिये मुक्त हो गये मंगलेश

जर्मन कवि बर्तोल्त ब्रेख्त की एक कविता मे ब्रेख्त ने बड़े तल्ख अंदाज़ में यह लिखा था कि - " पहाड़ों की यातनाएं हमारे पीछे हैं, मैदानों की हमारे आगे "। मूलतः पहाडों से मैदान में आते मंगलेश डबराल को यह पंक्तियां बहुत प्रिय थी और वो अक्सर से दोहराया करते थे । ऐसा लगता था जैसे पहाड़ों पर न रह पाने और मैदानों को न सह पाने का जो अनकहा दुख है, उसमें ये पंक्तियां उन्हें कोई दिलासा देती हों। वह अपने भीतर के दुख को जीवन के कार्य-व्यापार में बाहर नहीं आने देते थे । कातर पड़ना उन्हें गवारा नहीं था । एक रात साढ़े तीन बजे गाज़ियाबाद के वसुंधरा के एक निजी अस्पताल में भर्ती होने से पहलेउनको  बुखार था और उनकी पत्नी और बेटी को भी । उन्होंने बेटी की कोविड जांच कराई और जब पता चला कि उसे कोविड नहीं है तो मान लिया कि उनको भी नहीं होगा  । यह वह ज़िद थी, ख़ुद को कमज़ोर और बीमार न मानने की, जो अंतिम समय में उनके लिए आत्महंता लापरवाही में बदल गई । वसुंधरा के अस्पताल में वे क़रीब दस दिन लड़ते हे, उसके बाद उन्हें उनके आग्रह पर एम्स ले जाया गया। लेकिन सिगरेट से पहले से छलनी उनके फेफड़ों पर कोरोना का हमला सांघातिक साबित हुआ। मंगलेश पहाड़ोंं और मैदानों के बीच के द्वंद्व से  हमेशा-हमेशा के लिये मुक्त  हो गये  ।

राजा दुबे

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