जनप्रिय नेता हो तो मामा बालेश्वरदयाल जैसा
इतने बड़े इलाके में, इतने लम्बे समय तक आंदोलन चलाने वाले मामा बालेश्वर दयाल ने कुछ निजी सम्पत्ति इकट्ठी नहीं की। बामनिया में एक भील आश्रम बनाया गया चंदे से जहाँ वे रहते थे। सादे सूती कपड़े। सादा रहन सहन और बहुत ही आत्मीय और सरल व्यवहार। अंतिम समय में मित्रों ने बहुत कहा कि दिल्ली के बड़े अस्पताल में इलाज के लिये आ जाइये परन्तु वे नहीं माने। उनका आग्रह था कि जो स्वास्थ्य सुविधा अन्य आदिवासियों को मिल रही हैं वे उसी के भरोसे इलाज करवायेंगे। अंत तक उन्होंने अपना क्षेत्र नहीं छोड़ा।मामा जी को भीलों का गाँधी कहा जाये तो कुछ गलत न होगा। जिस तरह गाँधी, स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी भूमिका के लिये जाने गये उसी तरह भीलों के लिये तो राजाओं और कर्मचारियों की तानाशाही से आज़ादी इस लाल टोपी आंदोलन से ही आई। मामाजी की अपनी सेवा यात्रा 26 दिसम्बर 1998 को सियासी साल की लम्बी पारी के साथ सम्पन्न हुई ।
मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले में एक छोटा-सा कस्बा है- बामनिया जो एक संत और आदिवासी कल्याण के महत्वपूर्ण काम के लिये अपना पूरा जीवन समर्पित करने वाले मामा बालेश्वर दयाल के कारण पूरे देश में पहचाना जाता है। समाजवादी नेता मामा बालेश्वरदयाल ने पश्चिमी मध्यप्रदेश और उसकी सीमा से लगे गुजरात और राजस्थान जनजातीय इलाकों में रहने वाली जनजातीय आबादी को कुरीतियों और शोषण से मुक्त करने के लिये जनजागरण की जो अलख जगाई उससे इस अंचल में एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण देखने को मिला। वर्ष 1998 में 26 दिसम्बर को जब मामाजी का अवसान हुआ तो समूचा देश स्तब्ध रह गया। तब से आज तक हर साल पच्चीस से सत्ताईस दिसम्बर तक बामनिया के डूंगर आश्रम में मध्यप्रदेश, राजस्थान और गुजरात के जनजातीय अंचल से हजारों की संख्या में आदिवासी एकत्र होकर मामा बालेश्वरदयाल को याद करते हैं। आदिवासियों के मिज़ाज की परख रखने वाले जानकार तो यहाँ तक कहते हैं कि आजाद भारत में शायद ही ऐसा कोई राजनेता हो जिसकी पुण्यतिथि पर हजारों आदिवासी बिना किसी आमंत्रण या सूचना के जुटते हों। आदिवासियों की इस श्रद्धा को देखकर ही लोग कहते हैं जनप्रिय नेता हो तो बाबा बालेश्वरदयाल जैसा।
स्कूल में पढ़ते समय ही उनका राजनीति के प्रति रुझान था
मामा बालेश्वरदयाल का राजनैतिक जीवन इटावा (उत्तर प्रदेश) में स्कूल में पढ़ते समय ही आरम्भ हो गया था। वर्ष 1923 में उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया क्योंकि उन्होंने अपने अंग्रेज़ अध्यापक को पीट दिया था, जो गाँधी के खि़लाफ़ बोल रहा था। पिता की डांट के डर से वे उज्जैन के एक दोस्त के मामा के घर चले गये। कुछ दिन वहां एक स्कूल में अध्यापक की नौकरी की। केरल में गुरूवायुर मंदिर में दलितों को प्रवेश दिलवाने के आंदोलन से प्रभावित होकर यहाँ भी उन्होंने एक मंदिर में दलितों से प्रसाद बंटवाने की कोशिश की। कुछ ही समय में उज्जैन भी उन्हें छोड़ना पड़ा। वर्ष 1931 में चंद्रशेखर आज़ाद की मृत्यु के बाद वे उनकी माँ से मिलने झाबुआ के भाबरा गाँव, यह सोचकर गये कि उनकी माँ अकेली होंगी। वहाँ उनकी मुलाकात आज़ाद के एक बचपन के साथी– भीमा से हुईं। भीमा के साथ भाबरा में रहकर काम करने का निर्णय ले लिया। वर्ष 1932 में झाबुआ जि़ले के थांदला के एक स्कूल में हेडमास्टर की नौकरी पाकर वहां आ गये।
थांदला से उन्होंने आदिवासियों के शोषण मुक्ति का काम आरम्भ किया
थांदला तब झाबुआ रियासत में आता था। एक बार राजा की बेगार करते हुए जब एक भील महिला की मृत्यु हो गई तो उसकी अर्जी लिखने के जुर्म में उन्हें डेढ़ महीने की जेल हो गई। अर्जियां लिखने के ही जुर्म में मामाजी दो तीन बार जेल भेज दिये गये। उनके स्कूल के सचिव श्री पोरवाल उनके समर्थक थे, इसलिये जेल से निकलने पर फिर से नौकरी में लगा लेते थे। चौथी बार उन्हें भी मामाजी के साथ जेल जाना पड़ा। राजा का आरोप था कि ये गांधी के विचारों से प्रभावित होकर वे भीलों को राजा के खि़लाफ़ भड़का रहे हैं। इनकी राज्य विरोधी गतिविधियों के चलते राजा ने उस स्कल तक को तुड़वा दिया जहाँ मामाजी पढ़ाते थे ।राजाओं व कर्मचारियों की दमनकारी नीतियों का विरोध करने के साथ मामाजी ने सामाजिक मुद्दों पर भी काम किया। भीलों में नशाबंदी का लंबा आंदोलन चलायाा । शराब पीने में आई कमी के चलते राजा की शराब के ठेकों से आमदनी बहुत कम हो गई। मामाजी के इस आन्दोलन के कारण राजाओं और पादरियों ने मिलकर मामाजी की शिकायतें कीं , जिससे वर्ष1942 में महू के रेसीडेन्ट ने उन्हें इस क्षेत्र की नौ रियासतों से देश निकाला करने का आदेश दे दिया। कुछ दिन मामाजी को इंदौर की छावनी जेल में रखा गया। बाद में अहमदाबाद के एक होटल में पुलिस पहरे में रखा गया। मामाजी को जब पता चला कि सरकारी खर्च पर उन्हें होटल में रखा गया है तो उन्होंने बामनिया, बांसवाड़ा और कुशलगढ़ के लोगों को मिलने के लिये बुला लिया। बड़ी संख्या में लोग उनसे मिलने आने लगे। होटल का खर्च इतना बढ़ गया कि सरकार ने उन्हें छोड़ दिया। छूटने के बाद वे दाहोद में रहने लगे।
जागीर प्रथा और बेगार के खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़ी थी मामाजी ने
इसके बाद तो मामा बालेश्वरदयाल ने जागीरी प्रथा और राजाओं की वेठ बेगार के खि़लाफ़ ज़ोरदार आंदोलन छेड़ दिया। तब काश्मीर में हुई– देशी राज्य परिषद की बैठक में पंडित नेहरू ने इन्हें बुलाया। वहाँ मामाजी ने जागीरी प्रथा के कारण आदिवासियों की बर्बादी की कहानी नेहरूजी को सुनाई। उनकी बातें सुनकर नेहरूजी ने कहा– "स्वतंत्रता की पहली किरण के साथ ही जागीरें ख़त्म की जायेंगी।" इस कथन अनुसार मामाजी ने सारे इलाके में पर्चे छपवा कर बंटवा दिये। परन्तु देश आज़ाद होने के बाद जागीरें ख़त्म करने की बात को ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। नेहरूजी को याद दिलाने पर भी, कुछ न होता देख मामाजी ने काँग्रेस से इस्तीफ़ा दे दिया और जागीरदारों को लगान न देने का आंदोलन छेड़ दिया। इस आंदोलन में आदिवासी भारी संख्या में उमड़ पड़े। छः महीनों तक यह सिलसिला चलता रहा।
वर्ष 1949 में इसी संबंध में एक मीटिंग करके उदयपुर से लौटते समय मामाजी को रेल रोक कर गिरफ़तार कर लिया गया। साढ़े आठ महीने उन्हें टोंक जेल में रखा गया। बाहर लोगों का आंदोलन ज़ोर पर था। आंदोलन की खबरें अखबारों में छप रहीं थीं। यह अनूठा उदाहरण था जहाँ एक स्वतंत्रता सेनानी आज़ादी के बाद भी जेल में था। पढ़कर समाजवादी पार्टी के जयप्रकाश नारायण ने बामनिया आकर मीटिंग की। उनकी मीटिंग से इस क्षेत्र में इस पार्टी का प्रचार हो गया और लोगों ने इसकी निशानी स्वरूप लाल टोपी पहननी शुरू कर दी। धीरे-धीरे यह लाल टोपी मामा जी के आंदोलन की पर्याय बन गई। सरकारी कर्मचारी व शहरवासी, मामा जी से जुड़े लोगों को लाल टूपिया कहने लगे और इन्हें अब काँग्रेस की सफ़ेद टोपी का विरोधी के रूप में देखा जाने लगा।मामाजी की आन्दोलन की यह बात जब भारत के प्रथम वाइसराॅय श्री राजागोपालचारी तक पहुंची तो उन्होंने इस क्षेत्र की रियासतों को खारिज करने का एक आदेश जारी कर दिया और मामा जी को भी रिहा करवा दिया।
मामाजी ने आदिवासियों को सक्रिय राजनीति से भी जोड़ा
आदिवासियों में आई इस जनजागृति को मामाजी ने मुख्यधारा की राजनीति से जोड़ा जिसके फलस्वरूप आज़ादी के बाद के पहले आम चुनावों में इस पूरे क्षेत्र में मामा जी से जुड़े आदिवासी कार्यकर्ता विधायक और सांसद चुने गये। वर्ष 1952 के पहले मध्यप्रदेश विधान सभा चुनाव में झाबुआ की पाँचों सीटों से समाजवादी कार्यकर्ता जीते। इनमें जमुनादेवी भी थीं जो बाद में उप मुख्यमंत्री भी बनीं। राजस्थान में जसोदा बहन विधान सभा में जाने वाली पहली महिला विधायक थीं। वर्ष 1971 में जब पूरे देश में इंदिरा गाँधी की लहर थी, बाँसवाड़ा में मामाजी के सहयोगी 45 हज़ार वोट से जीते थे। यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि मामाजी ने समाजवादी पार्टी को देश के इस आदिवासी क्षेत्र में पहचान दिलाई।
बामनिया को बनाया अपनी जन जागरण गतिविधियाें का केन्द्र
वर्ष 1939 में मामाजी , इंदौर रियासत के गाँव बामनिया आ गये और जीवनपर्यंंत वे बामनिया ही रहे। उनकी सभी सामाजिक और राजनैतिक गतिविधियां बामनिया से ही संचालित होती थीं। बामनिया में इन्होंने एक डूंगर विद्यापीठ नामक स्कूल शुरू किया जिसमें आदिवासी बच्चों को अपने साथ रख कर पढ़ाना शुरू किया । स्कूल में पन्द्रह बच्चे चुन चुन कर रखे थे– जिनकी दाढ़ी मूँछ अभी नहीं निकली थी, कुछ लड़कियों को भी रखा। इन्हें पढ़ने लिखने के साथ साथ राजनीति के क, ख की शिक्षा दी। अर्जियां लिखना सिखाया और सरकारी नियम कानूनों की जानकारी दी। लोगों से सम्पर्क कर उनकी समस्याओं को समझना सिखाया। जब ये पन्द्रह प्यारे कुछ बड़े हो गये तो इन्हें पूरे आदिवासी क्षेत्र में स्कूल खोल कर वहाँ भेज दिया। झाबुआ, धार, रतलाम, बांसवाड़ा, डूंगरपुर आदि जि़लों में स्कूल खोले गये। इन्ही पन्द्रह शिक्षकों ने अपने छात्रों को साथ लेकर मामाजी के संदेश का पूरे इलाके में प्रचार किया। मामाजी ने इस काम को लंबे समय तक चलाने की दृष्टि से संसद से लेकर गाँव तक का संगठनात्मक ढांचा तैयार किया। इन पन्द्रह प्यारों में से अधिकांश, आगे चलकर विधायक और सांसद बने। आगे चलकर इन्होंने ही मामा जी की जन जागृति की आग को सात आठ जिलों में फैला दिया।
इस इलाके के भील स्थानीय राजाओं की वेठ बेगार से बहुत त्रस्त थे। राजा का नियम था कि चोखियार– उच्च जाति के लोग को बेगार माफ़ थी। मामाजी ने यह युक्ति लगाई और पुरी के शंकराचार्य से मिलकर आदिवासियों को जनेऊ पहनाने की अनुमति ले ली। शंकराचार्य का आदेश आया कि दारू माँस छोड़ो और जनेऊ पहनो। बस मामाजी ने इंदौर के कृष्णकांत व्यास से कहकर इस बात के तीन लाख परचे छपवाये। गाँव-गाँव में खबर पहुँचाई। प्रचार का ज़बरदस्त असर हुआ और हज़ारों की संख्या में आदिवासी दूर-दूर से बामनिया आने लगे। जनेऊ पहन कर आदिवासियों को राजा की बेगार नहीं करनी पड़ती थी हालाँकि इसके लिये लोगों को गांव गांव में कड़ा संघर्ष करना पड़ा। बेगार विराधी आंदोलन इस भील क्षेत्र की बारह रियासतों में फैल गया। बेगार के साथ साथ अकाल के समय में जबरन कर वसूली के विरोध में भी आंदोलन छेड़ा।
इस अँचल के आदिवासियों को सच्ची आजादी मामाजी ने ही दिलवाई
पश्चिमी भारत के आदिवासी बहुल झाबुआ, धार, रतलाम, दाहोद, बाँसवाड़ा, डूँगरपुर और दीगर जिलों के लाखों आदिवासियों की आज़ादी गाँधी से नहीं बल्कि, मामाजी की आँधी से आई। जिन्हें राजाओं के शोषण, वेठ बेगार, नशाखोरी, पुलिस, पटवारी और फारेस्टकर्मियों की तानाशाही और दमन जैसी सैंकड़ों दैनिक समस्याओं से लड़ने का साहस मामाजी ने दिया। मामाजी ने इन्हें इज़्जत से जीने का ढंग दिया और इस पूरे क्षेत्र को एक अलग राजनैतिक पहचान दी। इस आंदोलन का लाल झण्डा पुलिस, पटवारी और फ़ॉरेस्ट गार्ड को आदिवासियों के घरों से दूर रखता था।पश्चिम भारत के इन जिलों की खासियत यह है कि यहाँ अधिकांश आदिवासी रहते हैं और थोड़े बहुत अन्य जातियों के लोग गाँवों से घिरे छोटे-छोटे बाज़ारों में रहते हैं। इसीलिये आदिवासी इन्हें बज़ारिया या शहरिया भी कहते हैं। आदिवासी बहुल इलाके होने के बावजूद यहाँ चलती इन्हीं गिने-चुने बज़ारियों की थी जो कि अधिकतर दुकानदार, साहूकार, वकील या सरकारी कर्मचारी या सरकारी दलाल होते थे।ये बाज़ार पूरी तरह आदिवासियों के शोषण पर पनपते हैं। इसीलिये आदिवासियों में जागृति की ज़रा सी गंध आते ही ये लोग इसे कुचलने में लग जाते हैं।
जनजातीय इलाकों में शराबबंदी पर सबसे ज्यादा जोर दिया मामाजी ने
जनजातीय इलाकों में आदिवासियों की बदहाली के लिये शराब की खास भूमिका रही है। इसी बात को समझते हुए मामाजी ने शराबबंदी को बहुत महत्व दिया। 1954 में दारू बंदी आंदोलन फिर से ज़ोर शोर से शुरू हुआ। मामाजी को फिर से देश निकाला हो गया और उन्हें गुजरात जाकर रहना पड़ा। इस आंदोलन में महिलाओं ने बहुत सक्रिय भूमिका निभाई। महिला विधायकों ने इस मुद्दे को उठाया। रैली और सत्याग्रह हुए। धीरे धीरे सत्याग्रह जेल भरो आंदोलन में परिवर्तित हो गया। आदमी जेल जाने के लिये स्वेच्छा से तैयार होते थे और महिलाएँ उन्हें गीत गाते हुए जेल तक छोड़ने जाती थीं। झाबुआ से इंदौर तक पदयात्रा कर, वहाँ भी सत्याग्रह किया गया। आंदोलन सफ़ल हुआ और शराब की दुकानें बंद कर दी गईं। झाबुआ और पड़ोस के जिलों की एक और चुनौती थी वहां की चोरी चकारी। चोरी के लिये भील बहुत बदनाम थे। हालाँकि यह काम राजनैतिक व पुलिस संरक्षण में होता था, उनका मानना था कि धंधे के अभाव में हीं चोरियां होती हैं। मामा जी ने इनके लिये धंधों की एक सूची बनवाई जिसमें 712 छोटे मोटे धंधे निकले जो यहां किये जा सकते थे, परन्तु यह काम बहुत आगे नहीं जा सका। रोज़गार की तलाश में उन्होंने जंगल पर आदिवासियों के हक की मुहिम छेड़ी। आदिवासी इलाकों में वन विभाग का बहुत आतंक रहता है। इसके विरोध के लिये उन्होंने लोगों को तैयार किया। पुराने लोगों से बहुत किस्से हमने सुने जहाँ वे वनकर्मियों से भिड़ गये क्योंकि लाल टोपी का नियम था कि कर्मचारी के साथ दोस्ती नहीं करना, उन्हें रिश्वत नहीं देना। एक बुज़ुर्ग ने तो हमें अपनी टाँग और पीठ में अब तक गड़े छर्रे भी दिखाए जो वनकर्मियों की बंदूक से उसे लगे थे। इस मुहिम के चलते आदिवासी ठेकेदारों द्वारा साफ़ की गई जंगल ज़मीन पर खेती कर सके, दैनिक ज़रूरतों के लिये लकड़ी ला सके और वनोपज भी इकठ्ठा करने लगे।
बहुआयामी गतिविधियों के बूते मामाजी ने लोगों के बीच रहकर संघर्ष किया
साठ के दशक तक मामा जी ने राजस्थान, म.प्र. व गुजरात के सीमावर्ती इलाकों के भीलों के लिये एक पूज्य गुरू का रूप धारण कर लिया था। लोग उनसे अपने बच्चों को आशीर्वाद दिलवाने लाते थे। सम्मेलनों में एक-एक रूपया चंदा करते थे।अपने समय के समाजवादी नेताओं से परे मामाजी का ज़ोर लोगों के बीच रहकर उनकी समस्याओं के लिये संघर्ष करना था। बुद्धिजीवत्व में उनका बहुत विश्वास नहीं था परन्तु विचारों के फैलाव का महत्व वे बखूबी समझते थे। एक समय वे समाजवादी पत्रिका, चौखम्बा के सम्पादक मण्डल के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने, गोबर नाम की एक पत्रिका भीली भाषा में भी निकालीडॉ लोहिया के कहने पर मामा जी को समाजवादी पार्टी का अध्यक्ष बना दिया गया। इमरजेन्सी के दौरान जेल गये और 1978 में राज्य सभा सदस्य रहे। अपने जीवन में मामाजी ने सैंकड़ो आंदोलन छेड़े जो लोगों की जि़न्दगी के दैनिक मुद्दों से जुड़े थे। उस समय के सारे नेताओं से उन्हें यही बात अलग करती है कि वे पूरी तरह लोगों के दिलों से जुड़े हुए थे और देश आज़ाद होने के बाद जब सब कुर्सी की होड़ में थे तब मामाजी सत्ता से बहुत दूर लोगों के मुददों को लेकर आंदोलनरत थे।
इतने बड़े इलाके में, इतने लम्बे समय तक आंदोलन चलाने वाले मामा बालेश्वर दयाल ने कुछ निजी सम्पत्ति इकट्ठी नहीं की। बामनिया में एक भील आश्रम बनाया गया चंदे से जहाँ वे रहते थे। सादे सूती कपड़े। सादा रहन सहन और बहुत ही आत्मीय और सरल व्यवहार। अंतिम समय में मित्रों ने बहुत कहा कि दिल्ली के बड़े अस्पताल में इलाज के लिये आ जाइये परन्तु वे नहीं माने। उनका आग्रह था कि जो स्वास्थ्य सुविधा अन्य आदिवासियों को मिल रही हैं वे उसी के भरोसे इलाज करवायेंगे। अंत तक उन्होंने अपना क्षेत्र नहीं छोड़ा।मामा जी को भीलों का गाँधी कहा जाये तो कुछ गलत न होगा। जिस तरह गाँधी, स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी भूमिका के लिये जाने गये उसी तरह भीलों के लिये तो राजाओं और कर्मचारियों की तानाशाही से आज़ादी इस लाल टोपी आंदोलन से ही आई। मामाजी की अपनी सेवा यात्रा 26 दिसम्बर 1998 को सियासी साल की लम्बी पारी के साथ सम्पन्न हुई ।
राजा दुबे
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