दिल्ली आने के बाद से ही कई चीज़ों को लेकर मेरी परिभाषाएं बदल गई हैं। इनमें से ही एक है - बचपन। मैं हमेशा से यही सोचती थी बचपन एक ऐसा वक़्त होता है जब बड़े छोटों को बहुत कुछ सिखाते हैं। बताते हैं। समझाते हैं। लेकिन, यहाँ आकर देखा कि एक 8 महीने की बच्ची कैसे दिन भर माँ से दूर आया के हाथों में पलती है। या फिर कैसे एक 5 साल का बच्चा खुद स्कूल जाता हैं। या फिर कैसे एक 14 साल की बच्ची खुद ही अपने बड़े होने के मायने खोजती है। जो लिखा है, वो काल्पनिक हो सकता हैं या फिर किसी सच में किसी 8 साल की दिल्ली में पैदा हुई और बड़ी हो रही बच्ची की सोच...
मैं 8 साल की हूँ। दिल्ली में मम्मी-पापा और आया अंटी के साथ रहती हूँ। रोज़ सुबह 5 बजे उठती हूँ। आया अंटी मुझे तैयार करती है। फिर मुझे ब्रेकफ़ास्ट करवाती है। तब तक मम्मी भी उठ जाती है। वो मुझे प्यार करती है और मैं आया अंटी के साथ बस स्टॉप पर आ जाती हूँ। मेरे स्कूल जाने तक पापा कभी नहीं उठते है। आया अंटी मुझे खींच-खींचकर ले जाती है। वहाँ पर उनका कोई इंतज़ार करता रहता है। वो आदमी गंदा लगता है, नहाता भी नहीं होगा वो तो। वो आया अंटी से रोज़ पैसे मांगता है। 6 बजे मेरी बस आ जाती है और बसवाले भैया मुझे उसमें बिठा लेते है। वो हमेशा मेरे गाल खींचते है, जो मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता है। बस में मेरे फ़्रेन्ड्स भी रहते है। मैं हमेशा अपनी बेस्ट फ़्रेन्ड के पास बैठती हूं। वो बहुत लकी है उसे रोज़ उसके पापा छोड़ने आते है। मेरे पापा से तो मैं केवल सन्डे को ही मिल पाती हूँ। वो मुझे हर सन्डे को गिफ्ट देते हैं, लेकिन बस फिर कहीं चले जाते है। मम्मी कहती है उन्हें बहुत काम रहता है। स्कूल पहुंच कर हम पढ़ाई करते हैं। खेलते है, एक्सरसाईज़ करते हैं, म्यूज़िक सीखते हैं...... रेसेस में जब हम खाना खाने जाते है तो मैं हमेशा कैन्टीन से ही खाना लेकर खाती हूँ। आया अंटी के हाथ का खाना अच्छा नहीं लगता है। मैं डेली टीफ़िन का खाना वापस ले जाती हूँ। आया अंटी कुछ नहीं कहती है, वो ही रोज़ उसे खा जाती है। रेसेस में हम सब बहुत मस्ती करते हैं। मेरे कुछ दोस्तों के पास मोबाइल, गेम्स और प्लेयर्स है। वैसे तो ये स्कूल में अलाऊ नहीं लेकिन, हम छुपाकर ये लाते है। मेरा एक फ़्रेन्ड है वो बॉय है इसलिए सब उसे मेरा बॉयफ़्रेन्ड कहते है। सब कहते है हम दोनों की शादी हो जाएगी। मुझे ये नहीं पता लेकिन, मैं उसी के साथ खाना खाती हूँ। स्कूल की छुट्टी के बाद मै घर आती हूँ। 2 बजे हमारी छुट्टी होती हैं। रास्ते में बहुत हैवी ट्रैफ़िक मिलता है। आया अंटी मुझे लेकर घर आती है। मुझे खाना खिलाती है और फिर मेरे ट्यूशन वाले सर आ जाते है। मेरा मन होता है थोड़ी देर सोने का या फिर खेलने का। लेकिन, मुझे फिर पढ़ना पढ़ता है। आया अंटी तब बैठकर टीवी देखती रहती है। मेरे मम्मी-पापा? वो दोनों तो ऑफ़िस में रहते हैं। मैं शाम तक पढ़ती रहती हूँ। फिर मुझे शाम को एक्टिविटी क्लास जाना होता है। आया अंटी मुझे वहाँ लेकर जाती है। मैं रात को 8 बजे घर आती हूँ। तब मम्मी भी आ जाती है। फिर मम्मी मेरी स्कूल की डायरी चैक करती है। कई बार मुझे डांटती है। फिर आया अंटी को मुझे खाना खिलाकर सुला देने को कहती है। मैं मम्मी को उनके रूम में जाता देखती हूँ। मेरा मन होता है कि मैं मम्मी की गोद में सो जाऊं लेकिन, ऐसा कभी नहीं होता है। मम्मी को काम करना होता है। पापा तो मुझे हफ़्ते में एक दिन दिखाई देते है। मेरे साथ हमेशा आया अंटी ही रहती है। वो ही मेरा सारा काम करती है। शायद आया अंटी को मेरे लिए ही भगवान ने भेजा है। वो हमेशा मेरे साथ रहती है। अब मुझे नींद आ रही है। आया अंटी ने भी कम्प्यूटर बंद कर देने को कहा है। अब मैं सोने जा रही हूँ। अकेले...
2 comments:
मै बचपन हूँ ओर वापस नही आता ......
थोडी ज्यादती है। क्या वीडियो गेम, बस के रेलिंग के ठंडे चिकने पन या टीवी कार्टून या आया आंटी के पति के झिकझिक और भाषा में कोई फन कभी नहीं। खबरदार जीवन एक उच्चतर अवस्था में दाखिल हो रहा है जहां प्यार इत्मीनान से नहीं एक झटके से डोप की तरह पाया जाएगा और उसका इस्तेमाल जीवन के ओलंपिक में पुराना कीर्तिमान तोड़ने के लिए किया जाएगा।
अनिल
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