Monday, November 9, 2009

दिल्ली में रहने के दिन लद गए...

दिल्ली में लगातार बढ़ रही महंगाई आजकल मेरी सहनशीलता बढ़ा रही है। मैं अपनी ज़िंदगी और खा़सकर दिनचर्या के कामों के प्रति अब और भी ज़्यादा गंभीर हो चुकी हूँ। पिछले दो साल में किराया दोगुना हो जाने के बाद अब मुझे गरीब बस्तियों और गंदी तंग गलियों में ज़िंदगी नज़र आने लगी है। वजह साफ़ है- मैं किसी बहुत साफ़ और उच्चवर्गीय कॉलोनी में नहीं रह सकती हूँ। ऐसे ही अरहर की दाल या फिर फ़ुल क्रीम दूध भी अब मुझे पचता नहीं हैं। वैसे भी अरहर से तो पेट में गैस हो जाती हैं और फ़ुल क्रीम दूध पीने से ऐवे ही मोटापा बढ़ जाएगा। बस का किराया बढ़ना भी मुझे ठीक ही लगा। 5 रुपए बचाने के चक्कर में ही सही रोज़ाना मेरी 3 से 4 किलोमीटर की अच्छी खा़सी वॉक हो जाती है। वैसे वॉक एण्ड टॉक मैं नहीं कर पाती हूँ। मोबाइल के बिल का भी ख्याल रखना है और साथी ज़्यादा मोबाइल पर बात करने से कितनी तो बिमारियाँ हो जाती हैं इंसान को। इस ग्लोबल वार्मिंग ने एक बात जो ठीक की वो ये कि अब ठंड नहीं होती हैं। ऐसे में स्वेटर भी कभी-कभी ही पहनाते हैं तो वहाँ भी बचत। बसों में सफ़र करते वक़्त हरेक सरकार को कोसता हैं कि महंगाई इतनी बढ़ा दी है दाल सोने के भाव हो गई है। 3 रुपए का टिकिट 10 का हो गया है। लेकिन, तनख्वाह उतनी की उतनी ही हैं। ऐसे में एक बस यात्री का तो ये मानना है कि दिल्ली को पेरिस बनाना है सो पहले भिखारी हटाएं जा रहे थे अब हम जैसे बस यात्री जोकि सब्जीवाले से कोथमीर मुफ़्त में मांगते हैं हटाए जाएगे...

4 comments:

श्यामल सुमन said...

रोचक प्रस्तुति दीप्ती जी।

सहनशीलता बढ़ गयी मँहगाई की मार।
छूटे बस पैदल चलें होंगे नहीं बीमार।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

विवेक रस्तोगी said...

कोथमीर भी इतना महँगा है कि सब्जीवाला बेईज्जती करने वाली नजरों से देखता है, दस रुपये का जरा सा दो डंडी जिसमें छँटाक भर चटनी ही बने। पता नहीं मंहगाई कहाँ तक जाये और हम कब तक सहन कर पायेंगे।

कुश said...

सबका यही हाल है..

M VERMA said...

सही कहा है कि दिल्ली मे रहने के दिन लद गये पर फिर भी रहना तो होगा ही.