Thursday, August 23, 2012

ये पत्र केवल राजेन्द्र यादव के लिए नहीं है...

प्रिय माननीय,
राजेन्द्र यादव जी
मेरे मन में कुछ सवाल और शंकाएं थी जिसके हेतु मै आपको चिट्ठी लिख रहा हूं। पत्र लिखने के पीछे एक वजह ये भी रही की आप उपलब्ध भी नहीं थे। आपकी पत्रिका (अब तो आपकी ही कहना उचित होगा) के अंतरजाल में दिए गये पते पर यानि मेल आई डी पर भेजे गये पत्र का जवाब तो नहीं आता है हां भेजा गया पत्र ज़रूर उछल कर वापिस जाता है।
महोदय मेरा सवाल ये था कि क्या कविताओं को आपकी पत्रिका ने साहित्य की श्रेणी में रखना छोड़ दिया है?या कविताएं साहित्य में नहीं आती है ऐसी आपकी प्रारंभ से ही मानसिकता थी ?
दरअसल हाल ही मे मेरी कविता की पुस्तक रेहड़ी का प्रकाशन दर दर भटकने के बाद हो गया है। आपकी पत्रिका को हमेशा ही साहित्य जगत में सर्वश्रेष्ठ की श्रेणी में रखा जाता है मैं भी अपनी उम्र के हिसाब से काफी वक्त से हंस का पाठक रहा हूं।  इन्ही सब बातों के चलते मैअपनी कविता की पुस्तक समीक्षा हेतु आपके दरियागंज स्थित दफ्तर में लेकर पहुंचा था। किंतु वहां आपके सहयोगियों ने पहले तो पुस्तक मांगी मेरे पुस्तक निकालते निकालते उन्होने भी अपने मुख से एक सवाल निकाल दिया कि कहानी संग्रह है या उपन्यास है जवाब में मैने उन्हे कविता संग्रह होने की जानकारी दी जिसके लिए उन्होने साफ तौर पर समीक्षा छापने से इंकार करते हुए कहा कि हंस कविता संग्रह पर समीक्षा नहीं छापता है। रेहड़ी बाहर निकल पाती इससे पहले ही वापस मेरे झोले में चली गई। पहले मेरा मन हुआ कि पुस्तक वहीं छोड़ आंऊं कम से कम  पुस्तक आपकी नज़रों में तो आएगी ही। मैं आप लोगों के समक्ष नया हूं तो  आप लोगों की प्रतिक्रिया भी मेरे लिए बहुत मायने रखती है। किंतु जिस तरह से आपके सहयोगियों ने कविता संग्रह को ना लिए जाने की बात कही उससे ऐसा लगा जैसे कविता लेखन आज के दौर में उस शूद्र के समान हो गया है जिसे कोई भी पास नहीं रखना चाहता है। फिर मुझे ये भी लगा की जिस तरह से कविता संग्रह लेने से इंकार किया गया है उससे तो ऐसा प्रतीत होता है कि आप स्वंय भी कविताओं को लेकर कम दिलचस्पी रखते हैं। बस इन्ही तुरत फुरत आए विचारों के चलते मैंने पुस्तक वहां नहीं छोड़ी
हो सकता है मेरा लेखन आपकी नज़र में स्तरहीन हो, हो सकता है आप या आप जैसा कोई मुझे कवि मानने से ही इंकार कर दे। हो सकता है आप ये कहें की ये पुस्तक या इसके अंदर का लिखा हुआ तो छपने के ही लायक नहीं था   लेकिन अगर आप या आपकी सहयोगी दल अपनी पत्रिका में समीक्षा के माध्यम से ये बात कहें तो बात समझ में आती है अगर आप या आपका सहयोगी दल ये कह कर असमर्थता जताता कि पहले से ही आपके पास समीक्षा के लिए पुस्तकों का अंबार लगा हुआ है इसलिए पुस्तक छोड़ जाएं किंतु ये कह पाना मुश्किल है कि कब तक छप पाएगी तो ये बात भी समझ में आती
किंतु जिस तरह से कविता संग्रह की समीक्षा छापते ही नहीं ये कह कर जो सिरे से इंकार कर दिया गया उस बात ने मुझे ये सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या साहित्य में कविता का अस्तित्व ही नहीं रहा है। यदि ऐसा है तो फिर आप अपनी पत्रिका में कविता को प्रकाशित करके क्यों औपचारिकता निभा रहे हैं। क्यों आप साहित्यजगत में ये बात रखने का प्रयास करने में लगे हुए हैं कि नही देखिये हम तो कविताओं पर भी एहसान करते हैं।
मुंशी प्रेमचंद ने जब हंस की स्थापना की होगी तब क्या उन्होंने ये आदेश दिये थे या ऐसा कुछ लिख कर गये थे कि मेरे जाने  के कुछ वक्त के बाद पत्रिका को कविताओं से दूर रखना बल्कि इसकी चर्चा से भी दूर रखना या ये विचार आपके स्वंय के हैं कि कविताएं साहित्य को दूषित करती हैं , यदि ये विचार आपके हैं तो आपके विचार क्यों इस प्रकार के हैं ? क्यों आप कविताओं से इस तरह बेरूखी दिखा रहे हैं ? एक साहित्यिक पत्रिका के संपादक होने के नाते और एक वरिष्ठ साहित्यकार होने के नाते क्या आपका अधिकार नहीं बनता है कि आप साहित्य की हर  विधा को समानता की नज़र से देखे। सबको एक बराबर स्थान दें।
मुझे याद है जब पहली बार मै आपके पास जब अपना लेख या प्रतिक्रिया लेकर पहुंचा था और आपसे मुलाकात हुई थी तब मैने खुश होकर अपने दोस्तों को इस बात की जानकारी दी थी और जब हंस में प्रकाशित मेरा लेख प्रकाशित हुआ और मेरे पते पर कुछ लोग मुझे ढूंढते हुए पहुंचे तो मुझे लगा था कि इस पत्रिका की कुछ बात है। खैर पाठक तो मैं शुरू से ही रहा हूं। इस दौरान गंगा में काफी पानी प्रवाहित हो गया है लगता है और ये भी  लगता है अगली लहर में हंस भी बाज़ार के बहाव में बहना चाहती है शायद यही वजह है कि उन्हें कविताएं या उनसे संबंधित चर्चा बिकाऊ नहीं लगती होगी शायद पत्रिका के माध्यम से संपादकीय में विवादित बात कहना या किसी विवादित विषय पर चर्चा करना। एक दूसरे पर साहित्यिक कीचड़ उछालना। खुद को किसी पंथ का और दूसरे को किसी दूसरे पंथ के विचारों से ग्रसित बताना फिर उस चर्चा को बढ़ाना एक दूसरे की छीछालेदर करना या तुम मुझे पंत कहो मैं तुम्हे निराला कहूंगा जैसे विचारों पर गंभीर रहना यही साहित्य है।
 उठो लाल अब आंखे खोलो या बड़ी भली है अम्मा मेरी ताजा दूध पिलाती है या ये कदंब का पेड़ अगर मां होता जमना तीरे, या सतपुड़ा के घने जंगल, ऊंघते अनमने जंगल या हम पंछी उनमुक्त गगन के  ये वो पंक्तियां है जिसे पढ़ कर समझ कर  मेरा और सभी का बचपन गुज़रा है। (आपका बचपन इसलिए नहीं कहूंगा क्योंकि शायद आपके साथ के लोगों ने तो ये सब रचा होगा )जिस बचपन की नींव ही लोरी के सुरों को सुन कर डलती है जिस देश में भी सुर में गाया जाता है वहां किसी साहित्य की पत्रिका जिसे हिंदुस्तान साहित्य जगत की सबसे विश्वशनीय  सबसे अहम और सबसे ज्यादा पाठकों वाली पत्रिका माना गया है उसका कविता संग्रह को इस तरह नकारना कहीं ना कहीं साहित्य के लिए एक चिंताजनक बात  है। आप लोग वो लोग है जिन्होनें साहित्य को हर प्रकार के करवट बदलते, हर रंग में चढ़ते देखा है।  उन लोगों का  कविता के साथ इस तरह का बर्ताव कहीं ना कहीं नए लेखकों के मन में और जो इस विधा को बचाए रखना चाहते हैं उनके मन में नैराश्य़ उत्पन्न करता है
फिर भी यदि आपको लगता है की कविता साहित्य की श्रेणी में नहीं आती है,और कविता करना साहित्य नहीं महज़ बेवकूफी  है जो बाबा नागार्जुन से लेकर पाश तक, मुक्तिबोध से लेकर बच्चन तक सभी कर चुके हैं। तो माफी चाहता हूं जो मैं अपनी तुच्छ सी रचना लेकर आपके दफ्तर में उपस्थित हुआ।


पंकज रामेन्दु

5 comments:

Azad Alam said...

जो हुआ निराशाजनक है लेकिन कविता को किसी राजेन्द्र यादव या हंस के पैमाने पर तौल कर खुश या निराश मत होइए. कविता जीवन है! पन्त, प्रसाद, निराला, वर्मा, कीट्स, ब्लेक, ब्राउनिंग, रोज़ेटी ये सब बस प्रयास हैं उस जीवन को समझने के. आप उनमें से एक हैं. कविता सर्वोपरि है!
नए पुस्तक की शुभकामनायें!

विनीत कुमार said...

कविता को लेकर जो माहौल बना है..जिसे मैं सिर्फ और सिर्फ वर्चुअल स्पेस के जरिए देख-समझ पा रहा हूं,ये टिप्पणी उससे बिल्कुल ही अलग स्थिति बताती है. ऐसे में हो न हो राजेन्द्र यादव कहें- यार, जहां गर ठिए और खुले में रचना(कविता) हो रही है वहां हम नहीं छापते तो कौन सा पहाड़ टूट गया ? वैसे प्रगतिशील चेतना का मासिक की जगह प्रगतिशील, कवितारोधी का मासिक छपने लगे हंस के ठीक नीचे तो सारे विवाद यहीं खत्म हो जाएंगे.

विनीत कुमार said...

कविता को लेकर जो माहौल बना है और जिसे मैं सिर्फ और सिर्फ वर्चुअल स्पेस के जरिए देख-समझ पा रहा हूं, ये टिप्पणी उससे ठीक उलट स्थिति बयान करती है. ऐसे में राजेन्द्र यादव शायद ये कहें- अरे यार, अब जहां खुले में,बंद में रचना(कविता) हो रही है, वहां हमने समीक्षा नहीं छापी या हमारे लोगों ने मना कर दिया तो कौन सा पहाड़ टूट गया ? दूसरा कि अगर हंस के नीचे प्रगतिशील,कवितारोधी/अवरोधी/विरोधी/का मासिक छापा जाए तो सारे विवादों का जड़ अपने आप खत्म हो जाएगा.

Kisalaya said...

जिस देश में वेद की ऋचाएं साहित्य की प्रथम रचना मानी जाती हों वहा कविता संग्रह को लेकर ये बेरुखी दुखद है.लेकिन निराश नहीं होते पंकज,साहित्य के मठाधीशो से सामना होने का ये पहला अवसर है.
अभी तो तुम्हारी साहित्य यात्रा शुरू ही हुई है.आगे और भी अवसर आयेंगे.

Kisalaya said...

जिस देश में वेद की ऋचाएं साहित्य की प्रथम रचना मानी जाती हों वहा कविता संग्रह को लेकर ये बेरुखी दुखद है.लेकिन निराश नहीं होते पंकज,साहित्य के मठाधीशो से सामना होने का ये पहला अवसर है .
अभी तो तुम्हारी साहित्य यात्रा शुरू ही हुई है.आगे और भी अवसर आयेंगे .