जान पहचानवालों के फोन ज्यादातर शाम के वक्त ही आते है या फिर ये कहा जा सकता है कि मेरा फोन कवरेज क्षेत्र में उस वक्त ही आता है। सवाल एक से ही होते है- और, क्या चल रहा है। मेरा जवाब भी एक ही होता है- खाना बना रही हूँ। तो अचानक एक आह सुनाई देती है- अच्छा भुवन मदद नहीं करवाता है। मेरा जवाब- नहीं, वो रात को देर से आता है। पलटवार होता है- और, तुम सुबह जल्दी जाती हो। मेरा जवाब- हाँ दस बजे तक। फिर एक अलग ही टोन में- ओह, तब तो सुबह का खाना भुवन बनाता होगा। एक साल में मैं इसकी अभ्यस्त हो चुकी हूँ। कभी-कभी मैं कहती थी- नहीं दोनों मिलकर बनाते है। वैसे अधिकतर तो खाना बना ही नहीं पाते हैं, ऑफिस में ही खाते है। साथ में काम करनेवालों, दोस्तों और लगभग हर किसी के मुंह से एक न एक बार तो मैं ये बात सुन ही चुकी हूँ। कोई मज़े लेने के लिए बोलता है, कोई कामचोर पत्नी साबित करने के लिए, तो कोई इस अफसोस में काश हमारी मदद करनेवाला भी कोई होता। लेकिन, धीरे-धीरे महसूस होना शुरु हुआ कि ये सवाल केवल सवाल नहीं एक तरह का ताना मिक्स मज़ाक है। हमारे समाज (पुरुषवादी समाज) में एक पुरुष के घर के कामों में हाथ बंटाने पर और मेरा पत्नी होकर पति से काम करवाने पर। शुरुआत में चिढ़ आती थी कि क्या लोगों को इतना मज़ा आता है ये जानने में कि मेरे घर में कौन क्या करता है। लेकिन, फिर समझ आ गया कि ये हमारी रुढ़ीवादी मानसिकता के अलावा कुछ नहीं है। मुझे याद आता है कि कैसे घर पर पापा का सुबह की पहली और रात की आखिरी चाय बनाना मेहमानों को अजीब लगता था। मेरी मौसियाँ मेरी मम्मी को दबी जबान में कहती थी क्या तू भी दुबेजी से चाय बनवाती है। लेकिन, पापा को कभी भी चाय बनाना बुरा नहीं लगा। उनका ये काम उनकी मर्दानगी पर चोट न होकर अपनी पत्नी की मदद ही रहा। बड़े होने पर मेरी कई दोस्तों ने भी इस बात पर आश्चर्य जताया और कहा कि मेरे घर में तो पापा बिल्कुल काम नहीं करते है। किसी ने कहा मेरे पापा को तो पानी उबालना भी नहीं आता। सभी की आवाज़ में एक गर्व महसूस होता था। ऐसा कि मेरे पापा तो मर्द है, वो घर के काम नहीं करते। शादी के बाद अब भुवन और उसके घर के काम करने को लेकर होनेवाली पूछताछ उसी की अगली कड़ी है। कई बार ऐसा महसूस होता है कि महिला, पुरुष से घर के काम न करवाकर मर्द के अंदर की उस मर्दानगी को और पुष्ट करती है। मैंने अपने आसपास ऐसी महिलाओं को भी देखा है जो पति के मर्ज़ी से काम करने पर भी अचानक हड़बड़ा जाती है- अरे-अरे, आप क्या ये कर रहे हैं, मैं हूँ ना। और, ऐसे ही लोग मुझे देखकर आश्चर्यचकित होते कि मैं तो भुवन को काम करने से रोकती ही नहीं हूँ। पति-पत्नी के बीच जिस कामकाज को लेकर हुए सामाजिक बंटवारे का कैसे हम यूँ खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन कर देते हैं। लोग ये नहीं समझ पाते है कि एक घर में, दो लोगों के बीच में क्या तारतम्य है। कब, कौन, किसके लिए, क्या करता है ये समाज में जतानेवाला या समझानेवाला मुद्दा नहीं है, ये दो लोगों का निजी मसला है। हाँ लेकिन, समाज की इस फिक्स सोच को तोड़नेवाले हमेशा से ही महफिलों में मज़ाक और गॉसिप का एक मुद्दा ज़रूर बन जाता है...
1 comment:
खरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित है जो कि खमाज थाट का सांध्यकालीन राग है, स्वरों में कोमल निशाद और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं, पंचम इसमें
वर्जित है, पर हमने इसमें
अंत में पंचम का प्रयोग भी किया है, जिससे
इसमें राग बागेश्री भी झलकता है.
..
हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने दिया है.
.. वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल में चिड़ियों कि चहचाहट से मिलती है.
..
My blog ... फिल्म
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