काश
कुछ करना नहीं आता,
बातों
को समझना नहीं आता।
बस,
यूँ ही बालकनी में खड़े रहते,
सड़क
से गुज़र रहा कारवां समझ नहीं आता।
किराने
की दुकान का पता मालूम न होता,
बस,
बिस्तर पर पड़े कॉफ़ी की चुस्की का मज़ा लेना आता।
दफ्तर
भी कुछ होता है, जहाँ लोग हांफते-भागते पहुंचते है,
काश,
वहाँ पहुंचना नहीं होता।
मैट्रो
के छूटनेs का अफसोस नहीं होता,
बस
के सफर की थकान का अहसास नहीं होता।
काश,
कुछ करना नहीं होता...
दुनिया
से उलझना, रिश्तों को सुलझाना नहीं होता,
खुद
को समझना होता, दूसरों को समझाना नहीं होता।
3 comments:
काफी अच्छी शुरुआत है...किसी मुद्दे पर तुम्हारा लेखन तो बेहतरीन है ही.. उम्मीद है तुम्हारी कविताएं भी उतनी ही सार्थक और पैनी होंगी..
शुभकामनाएं
:) bohot hi mohak soch hai.kaash ke bewakoof hi rehte.ignorance is bliss :)
बहुत बढ़िया... यूँ ही लिखती रहो. अगली कविता का इंतज़ार रहेगा :-)
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