Saturday, October 6, 2012

नज़रों का नहीं, सोच का फेर है...



विनीत मुंबई की एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में एचआर मैनेजर है। उनके मुताबिक़ विकलांगों के प्रति खासकर दृष्टिबाधितों के लिए सामान्य लोगों का रवैया सही है या ग़लत ये कोई तय नहीं कर सकता है। हाँ, दृष्टिबाधित खुद अपने बारे में क्या सोचते है ये मायने रखता है। विनीत जन्मांध है और अपनी ही तरह के लोगों के साथ मिलकर दृष्टिबाधितों के कल्याण को पीछे छोड़ते हुए सामान्य लोगों को ये समझा रहे है कि वो समान है। ज़रूरत है तो बस तकनीक़ को उनके मुताबिक भी विकसित करने की। दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सभागार में पांच दिन का आयोजन अंतरचक्षु कम से कम मेरी आंखे खोल गया। ये समझा गया कि आंखों के सामने अंधेरा होते हुए काम करना, लिखना, पढ़ना, फोटो खिंचना कोई मुश्किल काम नहीं। उल्टा एक इंद्री की कमी बाक़ी इंद्रियों को इतना मज़बूत कर देती है, कि वो पांचवीं क्या छठीं इन्द्री भी जाग्रत हो जाती है।
 अंतरचक्षु की शुरुआत में ही आपकी आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है। आंख पर पट्टी बंधते ही लगा कि अब क्या होगा। लेकिन, अचानक ही अपने-आप, हाथ काम करने लगते है। टटोलने लगते हैं कि आसपास क्या है। मदद के लिए खड़े स्वयंसेवी का हाथ ऐसा महसूस होता है जैसे कि माँ ने बच्चे को प्यार से पकड़ा हो और चलना सिखा रही हो। स्वयंसेवी की आवाज़ और स्पर्श के साथ ही आज पूरे अंतरचक्षु को महसूस किया। सिक्कों की गिनती, कैल्कुलेटर पर गणना, फाइलों को सुनना और सिढ़ियों पर चढ़ना-उतरना सब कुछ कर लिया वो भी बिना देखें। यहाँ तक कि फुटबॉल भी खेल ली और मनपसंद क्रीम बिस्किट भी खोजकर खा लिए। 
    बीस मिनिट के इस अनुभव के बाद जब आंखें खोली गई तो महसूस हुआ कि आंखों की रौशनी और हमारी एक-एक इंद्री कितनी महत्त्वपूर्ण है। अंतरचक्षु में जाकर ही मालूम चला कि दृष्टिबाधितों के लिए फिल्मों का विशेष ऑडियो डबिंग होती हैं। विदेशों में ये ज़रूरी है लेकिन, भारत में पिपली लाइव से ही इसकी शुरुआत हुई है। स्टैनली का डिब्बा फिल्म का एक सीन जब सुना तो कुछ पल्ले ही नहीं पड़ा। लेकिन, जैसे ही दृष्टिबाधितों के लिए तैयार फिल्म का वहीं हिस्सा सुना तो बंद आँखों के सामने पूरा दृश्य तैर गया। सबसे मज़ेदार ये कि पात्रों के चेहरे और हावभाव खुद से ही महसूस किए। मतलब कि पसंदीदा इंसान को बिना किसी हिचक के सिनेमा के पर्दे पर महसूस कर लिया। बिना आँखों में रौशनी के सिक्कों और नोट में केवल महसूस करके अंतर कैसे किया जा सकता है, एटीएम से पैसे कैसे निकाले जाते है। या फिर शतरंज कैसे खेली जाती है, सब कुछ यहाँ सीखा और अनुभव किया। समझा, कि कैसे विज्ञान और तकनीक़ इसे संभव बना रही है। मैं अपने कार्यक्रम के सिलसिले में कई सफल दृष्टिबाधितों से मिल चुकीं हूँ।
   मैं समझती थी कि मैं उन्हें बाक़ियों से कुछ ज़्यादा जानने लगी हूँ। लेकिन, आज इस एक दिन ने, मुझे ये अहसास दिला दिया कि मैं अब तक कुछ नहीं समझती थी। आज पहली बार महसूस हुआ कि शारीरिक कमी का होना कोई मायने ही नहीं रखता है अगर सोच में विकलांगता न हो... 

1 comment:

Bhuwan said...

वाकई बड़ा रोमांचक अनुभव रहा होगा..अपने ही घर में ज़रा से अंधेरे में तो हम कायदे से चल नहीं पाते.. जबकि हर चीज हमारी देखी रहती है.. फिर नई जगह तो हम इस तरह आंखों पर पट्टी बांध कर करने की सोच भी नहीं सकते। तुम्हारे अनुभवों से अलहदा सबसे ज़रूरी बात है अंतरचक्षु का आयोजन...आम लोगों को नेत्रहीन लोगों की परेशानी समझने और उन्हें महसूस कराने का ये प्रयास काफी सराहनीय है।