नौ से दस घंटे की शिफ्ट होती है। ऑफिस तक पहुंचने
और वापस आने में दो से तीन घंटे का समय लग जाता है। अगर मोटा-मोटी माने तो दिन के
लगभग बारह घंटे ऑफिस और रास्तों पर कट जाते हैं। खुद के लिए समय ही कहाँ है। अगर
आप अकेले रहते है या आपके साथी की कोई और शिफ्ट है तब ही आपको कुछ घंटे अकेले मिल
पाते है। ये भी वो घंटे होते है जो कि आप साथी के साथ बिताना चाहते है न कि अकेले।
इसी बीच कई बार इंसान अकेला होना चाहता है। अपनी भावनाओं को, गुस्से को, खुशी को
अकेले में या किसी के साथ इज़हार करना चाहता है। लेकिन, समय कहाँ है?
दिल्ली में इसी समय की कमी ने भावनाओं को लोगों के सामने, बीच सड़क पर, भीड़ में
ही कहीं निकालने की आदत डलवा दी है। शायद दूसरे महानगरों का भी यहीं हाल होता
होगा। मैट्रो में सफ़र करते हुए अचानक ही से कोई सामने बैठी लड़की रोने लगती है,
आँखें ऊपर कर करके आँसू रोकती है। तो कई बार अचानक ही मोबाइल पर किसी के प्यार के
इज़हार सुनाई देने लगते है। आप असहज हो सकते हैं लेकिन, वो नहीं होते है। कई बार
निजी भावनाओं की यूँ सार्वजनिक अभिव्यक्ति असहज कर जाती है लेकिन, कई बार महसूस
होता है कि कम से कम भावनाएं ज़िंदा तो है। सबके सामने, यूँ अनजान लोगों के बीच
अचानक यूँ हंस पड़ना या रो देना समय की कमी की के साथ-साथ दबाव के बीच भी कुछ
भावनाओं के बचे होने की प्रतीक-सी लगती है।
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