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देखिए माधुरी और अरशद के लिए |
डेढ़ इश्किया को देखने के लिए केवल सिनेमा की समझ
काफ़ी नहीं। फिल्म आपको तब ही पसंद आएगी जब आप बेगम अख्तर को सुनते हो (
या
जानना भी काफी होगा),
बशीर बद्र को आपने पढ़ा हो और हिन्दी-ऊर्दू भाषा
की समझ हो। विशाल भारद्वाज और अभिषेक चौबे की जुगलबंदी में बनीं डेढ़ इश्किया मुझे
पसंद आई। फिल्म बीच-बीच में धीमी लगेगी लेकिन, उस धीमेपन के बाद की घटना आपको संतुष्ट
कर देगी। माधुरी दीक्षित हमेशा की तरह बेहद खूबसूरत लगी हैं। उम्र के साथ-साथ
माधुरी की सुन्दरता और अभिनय का पैनापन बढ़ता जा रहा है। मैंने फिल्म माधुरी की
वजह से देखना शुरु की थी और अंत होते-होते मेरे दिमाग में अरशद वारसी छा गए। जिमी
शेरगिल की ही तरह अरशद भी हिन्दी सिनेमा के एक अंडर रेटेड कलाकार है। एक ऐसे कलाकर
जिनमें प्रतिभा कूट-कूटकर भरी हुई हैं लेकिन, उसे निखारनेवाले बहुत कम है। फिल्म
के शुरुआती संवाद से ही मालूम चल जाता है कि शुरुआत भोपाल से ही होनी है। फिल्म को
पसंद की मेरी एक और वजह। नसीरउद्दीन शाह इतना अच्छा काम और अभिनय कर चुके है कि अब
वो मुझे चमत्कृत नहीं कर पाते हैं। हुमा ने माधुरी का अच्छा साथ दिया है। विजय राज
तो खैर अच्छे कलाकार है ही लेकिन, इस फिल्म में छोटे से रोल में मनोज पाहवा ने गजब
कर दिया है। फिल्म में गुलज़ार के गानों को बशीर बद्र की शायरी ने कड़ी टक्कर दी
है। जिसे इश्किया पसंद आई थी और जो इस बात से निराश है कि इसमें विद्या बालन नहीं
है वो निराश ना हो। फिल्म उतनी ही अच्छी है। और, माधुरी ने किसी और की कमी महसूस
तक नहीं होने दी है।
पुनश्चः फिल्म में दिखाई जा नवाबी शान और बेहतरीन
ऊर्दू संवादों को आपके आसपास स्मार्ट फोन थामे और शैतान बच्चों के साथ बैठे
माँ-बाप बुरी तरह से बिगाड़ सकते हैं। अब ये आपकी किस्मत कि ऐसे लोग आपके पल्ले
पड़ते हैं या नहीं।
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