Monday, March 31, 2014

मेरे अंदर की क्वीन...

कार रैली
          हमारा खुद के ऊपर बना हुआ अविश्वास आखिर आता कहाँ से????  शायद दूसरों से। दूसरे जब हमसे ये पूछते हैं कि क्या तुम कर पाओगी? हो जाएगा तुमसे? मुश्किल लग रहा है ये...  तो उस वक्त लोगों के ये कैजुअल से सवाल हमारा आत्मविश्वास कम करके चले जाते हैं। जब हम किसी और को कुछ अलग, कुछ अनोखा करते देखते हैं तो हमें लगता है कि हमसे ये नहीं हो पाएगा। ये तो कुछ विशेष लोग हैं, जिन्हें कुछ विशेष मिला हुआ हैं। लेकिन, ऐसा है नहीं। किसी के पास ऐसा कुछ विशेष नहीं जो हमारे पास नहीं। हाँ, उनमें और हम में बस इतना अंतर है कि वो केवल सोचते नहीं बल्कि उसे करते भी हैं। और, हम केवल सोचते हैं। पिछले दिनों जब कंगना की फिल्म क्वीन देखी तो इस अंतर को और गहराई से महसूस किया। अपनी छोटी-सी दुनिया में परिवारवालों और दोस्तों के बीच घिरी हुई रानी को कभी ये महसूस ही नहीं हुआ था कि वो सपने भी देखती है। वो अकेले भी कुछ सकती है। दुनिया देख सकती है, लोगों से मिल सकती है और उन्हें परख भी सकती है। लेकिन, सच में फिल्म अच्छी होने के बावजूद ये फिलॉस्फी मुझे फिल्मी ही लगी थी। लेकिन, दो दिन के अनुभव ने ये साबित कर दिया कि फिलॉस्फी फिलॉस्फी होती है। असल या फिल्मी नहीं। तीन साल तक सोचने और हर बार किसी न किसी बहाने से टाल देने के बाद जब इस साल दिल्ली से गुड़गांव के बीच होनेवाली रैली के लिए जब सुबह चार बजे घर से निकली तो मन में डर था तो लेकिन, मन को ये भी मालूम था कि कई नए अनुभव मिलनेवाले हैं। अब वो कैसे होंगे ये देखना होगा। मेरी जैसी लड़की का नैविगेटर बनना वैसे भी बड़ी बात थी। मैं 2006 से दिल्ली में हूँ और 2008 से रिपोर्टिंग कर रही हूँ। हर हफ्ते किसी नई जगह जाती हूँ। फिर भी मेरी रास्तों की समझ बहुत खराब है। मैं पूरी तरह ड्राइवर और टीम के साथियों पर निर्भर रहती हूँ। ऐसे में मुझे पूरा रास्ता बताना था। हर लैण्डमार्क को खोजना था। रैली के दौरान ये काम करने के बाद अगले ही दिन जब उसी रास्ते पर हम दोबारा चले तो मुझे हरेक सड़क याद थी। मुझे खुद पर आश्चर्य हुआ। दिल्ली की कई सड़कों पर अनगिनत बार मैं चल चुकी हूँ तब भी मुझे वो याद नहीं रहती। ऐसे में एक बार चलने पर भी इतना लंबा रास्ता मुझे याद हो गया। मेरे लिए ये रैली सबक रही। रास्तों को समझने और याद करने का सबक। इस रैली शामिल अंजान लोगों से मिलकर, उनसे बात करके और कभी कभी बस चुपचाप उन्हें देखकर ही मैंने समझा कि लोग ऐसे भी होते हैं। जो मेरे आसपास हैं उनसे इतर सोच और समझवाले...


    सच में दिमाग के दरवाज़े खोलने, मन के कोनों में दुबके संशयों को भगाने और आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए कभी-कभी अंजान लोगों के बीच रहना और अंजान सड़कों को नापना भी ज़रुरी हो जाता हैं...  

1 comment:

Unknown said...

Kuchh naya! Kuchh Alag!! Kuchh Anokha!!!