Friday, September 18, 2020

विद्वता की राह में विचारधारा की बाधा से जूझते रहे डॉ.प्रभाकर श्रोत्रिय- राजा दुबे

 


डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय का हिन्दी आलोचना साहित्य के क्षेत्र में बड़ा अवदान रहा है और वे एक विलक्षण आलोचक और उत्कृष्ट सम्पादक के रुप में वे हमेशा याद किये जायेंगे . उनका लम्बी बीमारी के बाद अठहत्तर वर्ष की उम्र में गत 16 सितम्बर को दिल्ली में निधन हो गया. उनका निधन हिन्दी साहित्य के लिये एक बड़ी क्षति है. विद्वता का जहाँ तक सवाल है वे अपने फन के उस्ताद थे, मगर वैचारिक प्रतिबद्धता के उनके आग्रह उनकी विद्वता की राह में बाधा बने और वे ताज़िन्दगी इसी द्वंद्व से जूझते रहे. सुप्रसिद्ध साहित्यकार नरेश मेहता की परम्परा के संवाहक प्रभाकर श्रोत्रिय अपने समकालीन वामपंथी लेखकों से वैचारिक स्तर पर कई बार टकराये मगर अपने लेखन की श्रेष्ठता के बूते पर वे अंगद के पैर के माफिक जमे रहे. श्रोत्रिय साहित्य की विचारधारा के आधार पर खेमेबंदी से प्रसन्न नहीं थे मगर वे साहित्यकार की तटस्थता को लेकर आग्रही भी नहीं थे.


डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय को साहित्यिक जगत में एक प्रखर सम्पादक के रूप में जाना जाता है. अलग-अलग कालखण्ड  में अक्षरा, वागर्थ, साक्षात्कार , समकालीन भारतीय साहित्य और नया ज्ञानोदय जैसी लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादन का श्रेय भी उन्हें प्राप्त था. ऐसा माना जाता है कि यदि वे पहल करते तो इतनी साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादन का कीर्तिमान भी किसी बुक ऑफ रिकार्ड्स में दर्ज हो जाता. वैचारिक मतभेद के बावजूद कई भारतीय लेखकों से उनकी अंतरंगता होने की वजह उनकी सज्जनता और ईमानदारी रही है.एक प्रखर
 आलोचक, लेखक, और साहित्यकार के रुप मे़ं  यह उनकी सबसे बड़ी खूबी रही है और तमाम लोगों को साथ जोड़कर काम करने की बेजोड़ उनकी कार्यशैली रही है, जो हिंदी के संपादकों में अक्सर देखी नहीं जाती।

मध्यप्रदेश के जावरा में 19 दिसम्बर  1938 को जन्मे डॉ. श्रोत्रिय ने उज्जैन में उच्च शिक्षा प्राप्त की और हिन्दी में पीएडी तथा डीलिट करने के बाद वे भोपाल के हमीदिया कॉलेज में प्राध्यापक नियुक्त हो गए थे.वे मध्यप्रदेश साहित्य परिषद की पत्रिका- " साक्षात्कार "  के संपादक भी रहे. भोपाल से ही निकलने वाली पत्रिका "अक्षरा " का भी संपादन किया . उसके बाद वे कोलकाता से भारतीय भाषा परिषद की पत्रिका "वागर्थ" के भी संपादक रहे. इसके बाद उन्होंने नया ज्ञानोदय के सम्पादन का दायित्व भी संभाला. पिछले कुछ वर्षों से वे साहित्य अकादमी की पत्रिका "समकालीन भारतीय साहित्य" का  सम्पादन भी कर रहे थे. वे सेवानिवृत्त होकर स्वतंत्र लेखन से जुड़ गये थे.
साहित्य की लगभग सभी विधाओं में उन्होंने लेखन किया. आलोचना, निबंध और नाटक के क्षेत्र में इनका योगदान उल्लेखनीय माना गया. उन्होंने आलोचना विधा में प्रसाद का साहित्य : प्रेमतात्विक दृष्टि कविता की तीसरी आंख, संवा ,कालयात्री है कविता सहित ग्यारह किताबें. हिन्दी: दशा और दिशा, सौन्दर्य का तात्पर्य ,समय का विवेक और समय समाज साहित्य जैसी निबंध की चार पुस्तकें भी लिखीं. उनके लिखे नाटक इला, सांच कहूं तो और फिर से जहाँपनाह भी चर्चित रहे.उन्होने हिन्दी कविता की प्रगतिशील भूमिका और सूरदास: भक्ति कविता का उत्सव जैसी आधा दर्जन से भी अधिक पुस्तकों का सम्पादन भी किया.

राजा दुबे 

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