Monday, May 24, 2021

स्मृति शेष: सुंदरलाल बहुगुणा

 

बहुगुणा का महाप्रयाण भी एक संदेश है कि पर्यावरण बचेगा तो जीवन बचेगा
तस्वीर सौजन्य: सतीश आचार्य


एक महान व्यक्ति का आचार, व्यवहार और आचरण तो
उनके जीवन मूल्यों को परिलक्षित करता ही है उनका
अवसान भी एक जीवंत संदेश होता है। सुप्रसिद्ध
पर्यावरणविद् सुन्दरलाल बहुगुणा का शुक्रवार, 21 मई
को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, ऋषिकेश में
कोरोना संक्रमण से निधन हो गया। बहुगुणा के इस महाप्रयाण में भी यह संदेश अन्तर्निहित रहा कि कोरोना महामारी ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया है कि यदि पर्यावरण सुरक्षित है तो ही जीवन सुरक्षित रहेगा। उनका अवसान एक बड़ी क्षति है। प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी ने अपने ट्विट में लिखा है कि सुंदरलाल बहुगुणा का निधन हमारे देश के लिए एक बड़ी क्षति है। उन्होंने प्रकृति के साथ सद्भाव में रहने के हमारे सदियों पुराने लोकाचार को प्रकट किया। उनकी सादगी और करुणा की भावना को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। मेरे विचार उनके परिवार और कई प्रशंसकों के साथ हैं। पर्यावरण के संरक्षण के लियेे  उनका अवदान एक महान उपलब्धि है ।

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के सच्चे अनुयायी और वारिस थे बहुगुणा 

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के सिद्धांतों पर चलने वाले सुंदरलाल बहुगुणा ने सत्तर के दशक में पर्यावरण सुरक्षा को लेकर एक अभियान चलाया था जिसने पूरे देश में अपना एक व्यापक असर छोड़ा। इसी दौरान शुरू हुआ- "चिपको आंदोलन" भी इनकी प्रेरणा से ही शुरू किया गया था। हिमालय के गढ़वाल इलाके में  पेड़ों की कटाई के विरोध में शांतिपूर्ण ढंग से चलाये गये चिपको आन्दोलन का चरम मार्च 1974 में सतह पर आया जब वृ‌क्षों की कटाई के विरोध में स्थानीय महिलाएं पेड़ों से चिपक कर खड़ी हो गईं, दुनिया ने इसे चिपको आंदोलन के नाम से जाना। सुन्दर लाल बहुगुणा ने इस आन्दोलन के माध्यम से विश्व को यह संदेश दिया कि पर्यावरण को बचाने के लिये प्रार्णोत्सर्ग के चरम तक के लिये तैयार रहना चाहिए। इसी आन्दोलन के बाद बहुगुणा को वृक्ष मित्र कहा जाने लगा। हिमालय के रक्षक के नाम से भी पहचाने जाने वाले सुंदरलाल बहुगुणा का जन्म उत्तराखंड के टिहरी के पास एक गांव सिल्यारा में 09 जनवरी 1927 को हुआ था. अपने जीवनकाल में उन्होंने कई आन्दोलनों की अगुवाई की, फिर चाहे वो शुरुआत में छुआछूत का मुद्दा हो या फिर बाद में महिलाओं के हक में आवाज़ उठाना हो। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के अनुयायी बहुगुणा की वर्ष 1949 में मीराबेन व ठक्कर बाप्पा से मुलाकात हुई। बहुगुणा ने दलित विद्यार्थियों की आवासीय समस्या के समाधान के लिये "ठक्कर बप्पा छात्रवासों" की स्थापना भी की। इन दोनों के सानिध्य में ही उनका समाज सुधार का सफर शुरू हुआ। 

दलितों को समाज में सभी नागरिक अधिकार दिलाने को वे सदैव सचेष्ट रहे

मन्दिरों में दलितों को प्रवेश का अधिकार दिलाने के लिए उन्होंने प्रदर्शन व धरना देना शुरू किया। इस बड़े
काम के लिये बहुगुणा ने वर्ष 1971 में गुजरात के खेड़ा
शहर में दलितों के मन्दिर प्रवेश को लेकर वर्ष 1971 में सोलह दिनों का अनशन भी किया था। समाज के लोगों के लिए काम करने हेतु बहुगुणा ने वर्ष 1956 में शादी होने के बाद राजनीतिक जीवन से संन्यास लेने का निर्णय लिया और अपनी पत्नी विमला नौटियाल के सहयोग से बहुगुणा ने पर्वतीय नवजीवन मण्डल की स्थापना की पर्वतीय नवजीवन 
मण्डल के माध्यम से ही आपने टिहरी में नशा मुक्ति अभियान भी चलाया। दलितों को वे सभी अधिकार मिले जो देश के अन्य नागरिकों को मिलते हैं इस दिशा में वे ताज़िन्दगी सचेष्ट रहे। वे चाहते थे दलित शिक्षित हों जिससे उन्हें नागरिक अधिकार पाने की उत्कंठा जागे और इसके लिये उन्हे किसी मसीहा या अधिकारों की लड़ाई लड़ने वालों की जरुरत न हो।
वे दलितों में भी खासतौर पर दलित कन्याओं की शिक्षा
के हामी थे ताकि वे रूढ़िवादी समाज में अपनी हक की
लड़ाई लड़ सकें। एक पर्यावरणविद के साथ-साथ वे एक समाज सुधारक भी थे।

राजशाही के खिलाफ भी बहुगुणा ने आज़ादी के पहले लड़ाई लड़ी थी 

अपने शिक्षणकाल में ही सुन्दरलाल बहुगुणा टिहरी की
राजशाही के खिलाफ लामबंद हो गये थे। टिहरी राजशाही के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे श्रीदेव सुमन से वे छिप छिपकर मिलते थे। एक बार श्रीदेव सुमन ने उन्हें कोर्ट में दिया गया अपना एक बयान दिया। बहुगुणा ने यह बयान दिल्ली भेज दिया। मीडिया ने इस बयान को हाथों-हाथ लिया और वो अखबारों में छप गया। यह खबर लगते ही बहुगुणा को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। अस्वस्थ्य होने से जब वे रिहा किये गये तो वे लाहौर चले गये। वर्ष 1947 में जब वे टिहरी लौटे तो राजशाही के खिलाफ जनविद्रोह अपने चरम पर था। अपने भी प्रजामण्डल में शामिल होकर राजशाही के खिलाफ निर्णायक लड़ाई में भाग लिया और अंततः 
जनवरी 1948 में टिहरी को राजशाही से मुक्ति मिली और यह सूचना जब बहुगुणा ने महात्मा गाँधी को दी तो उन्होने बहुगुणा की पीठ थपथपाते हुए कहा था तुमने तो मेरी अहिंसा को हिमालय पर उतार दिया। वर्ष 1971 के नवम्बर माह में तत्कालीन उत्तरप्रदेश सरकार ने जब टिहरी में शराब की दुकान खोली तो वे अपनी पत्नी और मण्डल के साथियों के साथ विरोध में धरने पर बैठे और तब सबने समवेत स्वरों में गढ़वाली कवि घनश्याम सैलानी का नशामुक्ति गीत गाया था। पुलिस ने उन्हें, उनकी पत्नी विमला और बेटे प्रदीप के साथ सभी आन्दोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया। अंततः सरकार को यह दुकान बंद कर टिहरी-गढ़वाल में नशाबंदी घोषित करना पड़ी थी।

सम्मान और पुरस्कार से हटकर वे जनसमर्थन को सच्चा सम्मान मानते थे

वर्ष 1981 से लेकर 2001 तक दो दशक में उन्हे अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। वे सम्मान और पुरस्कार को बड़े सहज भाव से गृहण करते थे। सम्मान और पुरस्कार से हटकर वे जनसमर्थन को। सच्चा सम्मान मानते थे।पर्यावरण के क्षेत्र में बहुमूल्य काम करने के लिए  वर्ष 1981 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा था। किंतु उन्होंने यह पुरस्कार लेने से मना कर दिया। उनका कहना था कि जब तक पेड़ कटते रहेंगे, तब तक मैं इस पुरस्कार को स्वीकार नहीं कर सकता। वर्ष 1985 में उन्हें रचनात्मक कार्यों के जमनालाल बजाज पुरस्कार , वर्ष 1987 में  चिपको 
आन्दोलन के लिये राइट लाईवलीहुड पुरस्कार,वर्ष 1987 में ही शेर ए कश्मीर और सरस्वती पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1989 में भारतीय प्रोद्यौगिकी संस्थान रुड़की ने आपको सामाजिक विज्ञान के लिये डॉक्टर की मानद उपाधि से सम्मानित किया। वर्ष 1998 में पहल सम्मान, वर्ष 1999 में गाँधी सेवा सम्मान, वर्ष 2000 में पार्लियामेंट्री फोरम का सत्यपाल मित्तल अवॉर्ड और वर्ष 2001 में आपको दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया।

उनके अवसान से विश्व ने एक सच्चा पर्यावरण हितैषी को दिया है

सिर्फ देश ही नहींअपितु समूची दुनिया में प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण के सबसे बड़े प्रतीक में शामिल सुंदरलाल बहुगुणा ने वर्ष 1972 में चिपको आंदोलन के माध्यम से देश-दुनिया को वनों के संरक्षण के लिए प्रेरित किया। परिणामस्वरूप चिपको आंदोलन की गूँज समूची दुनिया में सुनाई पड़ी। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी बहुगुणा का नदियों, वनों व प्रकृति से बेहद गहरा जुड़ाव था। वह पारिस्थितिकी को सबसे बड़ी आर्थिकी मानते थे। यही वजह भी है कि वह उत्तराखंड में बिजली की जरूरत पूरी करने के लिए छोटी-छोटी परियोजनाओं के पक्षधर थे। इसीलिए वह टिहरी बांध जैसी बड़ी परियोजनाओं के पक्षधर नहीं थे। इसे लेकर उन्होंने वृहद आंदोलन  शुरू कर पर्यावरण संरक्षण की अलख जगाई थी। उनके अवसान से विश्व ने एक सच्चा पर्यावरण हितैषी को दिया है।

राजा दुबे 

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