Thursday, July 15, 2021

स्वातंत्र्यसंभवम् के रचनाकार रेवाप्रसाद द्विवेदी का अवसान

 








संस्कृत के प्रकांड विद्वान और संस्कृत के तीन विलक्षण
महाकाव्य के रचयिता पंडित रेवाप्रसाद द्विवेदी का अवसान उस एक युग का अवसान है जिसमें संस्कृत भाषा के रचनाकारों ने जीवन, समाज और देश में घटित हो रहे एक-एक पल को सहेजा और हमारी सांस्कृतिक पहचान को शब्दों में बाँधा। एक महाकवि, नाटककार, समीक्षक और संस्कृत के लब्धप्रतिष्ठित विद्वान पंडित रेवाप्रसाद का जन्म 22 अगस्त 1935 को मध्यप्रदेश के सीहोर जिले के गाँव नांदनेर में हुआ था। आपके पिता नर्मदाप्रसाद दुबे प्रकाण्ड पंडित और ज्योतिषाचार्य थे। मूलतः यह परिवार इलाहाबाद के पास गाँव कड़ा का था जो यजमानों के आग्रह पर मध्यप्रदेश के इस गाँव में आ गया था। 

आपने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से संस्कृत में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की तथा रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर से पीएचडी और रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर से डी-लिट की उपाधि प्राप्त की। राष्ट्रपति नीलम संजीव ने वर्ष 1979 में उन्हें संस्कृत के सर्वोच्च संस्कृत साहित्य सम्मान से भी सम्मानित किया था। डॉ रेवाप्रसाद की आयु तब सिर्फ 45 वर्ष की थी। इतनी कम उम्र में यह  सम्मान पाने वाले वे पहले विद्वान थे। उन्हें एशियाटिक सोसायटी मुंबई ने वर्ष 1983 में महामहोपाध्याय की उपाधि और पीवी काणे स्वर्ण पदक प्रदान किया था। उन्होंने बनारस में अस्सी के दशक में विश्व संस्कृत सम्मेलन आयोजित कराया और कई देशों में विश्व संस्कृत सम्मेलनों में भागीदारी की। इसके अलावा डॉ. रेवाप्रसाद ने तेरह हज़ार श्लोकों वाले तीन संस्कृत महाकाव्य, पांच किताबें और दो नाटक भी लिखे।

स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद आपने इंदौर के शासकीय कला और वाणिज्य महाविद्यालय से अध्यापन
शुरू किया। उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय के प्रमुख और साहित्य विभाग में विभागाध्यक्ष सहित कई महत्वपूर्ण पदों पर अपने सेवाएं दी। आप संस्कृत के प्रोफेसर एमिरिटस भी रहे। आप संस्कृत को राष्ट्रभाषा घोषित कराने के पक्षधर रहे हैं और इसके लिए उन्होंने कई शीर्ष नेताओं से संपर्क और पत्राचार भी किया था। हिन्दी के बारे मे आपका मानना था कि देश में सबसे अच्छी हिंदी मध्यप्रदेश के लोग बोलते और लिखते हैं। संस्कृत को क्लिष्ट भाषा के रुप में प्रचारित करने की विभिन्न भाषाभाषियों की साज़िश पर भी अपने तर्कपूर्ण आलेख लिखे। आपने अंग्रेजी के स्थान पर संस्कृत को दूसरी भाषा मानने का भी आग्रह किया।

रेवाप्रसाद द्विवेदी काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ होने के साथ एक
सहृदय कवि भी थे। उनकी रचनात्मक मेधा की यदि हम 
बात करें तो विविध शास्त्रों के लेखन में उनकी अप्रतिहत
गति थी। उनके द्वारा लिखे गये तीन महाकाव्य- उत्तर सीताचरितम, कुमारविजयम और स्वातंत्र्यसम्भवम् में
से स्वातंत्र्यसम्भवम् एक विलक्षण महाकाव्य में गिना जाता है। इन महाकाव्यों के अलावा आपने शतपत्रम् , मतान्तरम् , शरशैय्या, संस्कृतहीरकम और प्रतीक्षा का लेखन भी किया।

स्वातंत्र्यसम्भवम् द्विवेदीजी की एक कालजयी रचना है जो एक कालखण्ड के घटनाचक्र पर आधिकारिक व्यक्तव्य के सादृश्य है। एक दृष्टा के रुप में आपने अपने अनुभव और अध्ययन के आधार पर वर्ष 1857 से वर्ष 2011 तक का व्यौरा इस महाकाव्य में समाहित किया है। यह महाकाव्य उस कालखण्ड का इतिहास नहीं है मगर तत्समय के  विवरण को उन्होंने समग्र रुप से प्रस्तुत किया है। यह महाकाव्य पिचहत्तर सर्ग और छः हज़ार चौंसठ श्लोकों में बँटा है। पहले तेरह सर्ग में पं.मोतीलाल नेहरु का चरित्र चित्रण है अवशेष चौदह से पिचहत्तर सर्ग में कवि के अनुभव और अध्ययन के आधार पर उस कालखण्ड को रेखांकित किया है। इस महाकाव्य में स्वातंत्र्य का अर्थ वहीं है जो शैवशास्त्र में वर्णित है। आपने इस एक महाकाव्य के बारे में यह भी कहा है कि-"देशभक्त सेनानायकों का देश को स्वतंत्रता प्राप्त करवाने में प्रकट किये गये महिमातिशय अपूर्व पराक्रम का वर्णन करें वहीं स्वातंत्र्य काव्य है। स्वातंत्र्यसम्भवम् में स्वाधीनता संग्राम, मोतीलाल नेहरु, कमला नेहरु, पं जवाहरलाल नेहरु, लालबहादुर शास्त्री और श्रीमती इन्दिरा गाँधी का भी जिक्र है। द्विवेदीजी झांसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई से बेहद प्रभावित थे। स्वातंत्र्यसम्भवम् में उन पर पूरा एक सर्ग लिखा गया है। 


पंडित रेवाप्रसाद द्विवेदी वर्ष 1950 में मध्यप्रदेश से काशी आ गये थे। अपने जीवनकाल में उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की, जिसमें तीन महाकाव्य एवम् बीस खण्ड काव्य शामिल हैं। उन्होंने "स्वातंत्र्यसंभव" महाकाव्य की रचना की। इसे शताब्दी का सबसे बड़ा महाकाव्य माना जाता है। उन्होंने साहित्य शास्त्र के छह मौलिक ग्रंथों की भी रचना भी की। उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थान की ओर से उन्हें विश्वभारती सम्मान और वर्ष 1991 में साहित्य अकादमी सम्मान से भी सम्मानित किया गया। समय-समय पर देश की संस्थाओं की ओर से उन्हें अनेक पुरस्कारों प्रदान किए गए। इसके साथ ही उन्होंने सैकड़ों शोध पत्रों तथा शताधिक ग्रंथों का संपादन भी किया।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पण्डित रेवाप्रसाद द्विवेदी के
अवसान पर अपने संदेश में कहा कि संस्कृत की महान विभूति महामहोपाध्याय पण्डित रेवाप्रसाद द्विवेदी जी के निधन से उन्हे अत्यंत दुख पहुंचा है। उन्होंने साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में कई प्रतिमान गढ़े। उनका जाना समाज के लिए अपूरणीय क्षति है। शोक की इस घड़ी में उनके परिजन और प्रशंसकों को मेरी संवेदनाएं, ओम शांति! 
पंंडित द्विवेदी के निधन पर काशी विद्वत्परिषद के अध्यक्ष प्रो रामयत्न शुक्ल ने कहा कि उनके जाने से संस्कृत का देदीप्यमान नक्षत्र चला गया। उन्होंने जो काम किया है वह संस्कृत साहित्य एवं वर्तमान पीढ़ी के अध्येताओं के लिए धरोहर है।

राजा दुबे
 

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